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________________ ६४ श्री स्वयंभू स्तोत्र टीका मिथ्यात्वं परमं बीजं, संसारस्य दुरात्मनः । तस्मात्तदेव मोक्तव्य, मोक्षसौख्यं जिघृक्षुणा ॥ ५२ ॥ सम्यक्त्वेन हि युक्तस्य ध्रुवं निर्वाण सगमः । मिथ्य दृशोऽस्य जीवस्य संसारे भ्रमणं सदा ।।४१।। भावार्थ - मिथ्यात्व ही इस दुःखमय संसार का भारी बीज है । इसीसे जो मोक्ष का सुख चाहता है उसे उचित है कि इसे त्याग देवें । जो सम्यक्त्वका धारी है वह निश्चय से निर्वाण पावेगा, मिथ्यादृष्टि जीव का संसार में सदा ही भ्रमरण रहेगा । छन्द श्रग्विनी लक्ष सुख चाह की श्राग से तप्त मन, ज्ञान प्रमृत सुजल सींच कीना शमन । वैद्य जिम मंत्र गुण से करे शांत तन, सर्व विष की जलन से हुप्रा वेयतन ॥४७॥ उत्थानिका -कोई शङ्का करता है कि जिस तरह श्री शीतलनाथ भगवान ने सत्य मोक्ष मार्ग पर चलकर अपने मन के सर्व संताप को शान्त किया वैसे सर्व लोग भी क्यों नहीं शान्ति का लाभ करते हैं--- स्वजीविते कामसुखे च तृष्णया, दिवा श्रमार्त्ता निशि शेरते प्रजाः । त्वमा नक्तंदिवमप्रमत्तवानजागरेवात्मविशुद्धवत्र्त्मनि ॥ ४८ ॥ अन्वयार्थ - ( प्रजाः) जगत की साधारण प्रजा [ स्वजीविते ] अपने इस जीवन को बनाए रखने की [ च कामसुखे ] और इन्द्रियों के सुख भोगने की [ तृष्णया ] तृष्णा से पीड़ित होकर [ दिवा ] दिन में तो ] श्रमार्ताः ] नाना प्रकार परिश्रम करके थक जाती हैं व [ निशि ] रात्रि होने पर [ शेरते ] सो जाती है । परन्तु [ श्रार्य ] हे श्री शीतलनाथ तीर्थकर ! [ त्वम् ] श्राप तो [ नक्तं दिवं ] रात दिन [ श्रप्रमत्तवान् ] प्रमाद रहित होकर [ श्रात्मविशुद्धवर्त्मनि ] श्रात्मा को शुद्ध करने वाले मोक्ष मार्ग में (प्रजागरः एव ) जागते ही रहे । भावार्थ - शिष्य की शङ्का का समाधान करते हुए प्राचार्य कहते हैं कि जगत के साधारण मानव दिन रात श्राकुलता और तृष्णा में फंसे हुए शान्ति के मार्ग का कभी सेवन हो नहीं करते हैं । उनके भीतर यह तृष्णा सदा ही बनी रहती है, कि हमारा यह जीवन सदा चलता रहे, हमको कोई खानपान का फष्ट न हो तथा हम पांचों इन्द्रियों के प्रनेक प्रकार इच्छित भोगों को भोगते रहें । इस भाव से दिन भर पैसा कमाने के यत्न में ल
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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