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________________ ८६ स्वयंभू स्तोत्र टीका हरएक बुद्धिमान को होता है । इसी से सिद्ध है कि वस्तु नित्य स्वरूप है । द्रव्य वही रहा यद्यपि पर्याय पलटी | जब हमारी दृष्टि अवस्था के फेरबदल पर जाती है तब यह प्रतीति में आता है कि यह अब कड़ा है पहले कण्ठी थी, उससे पहले बाली थी । अवस्था इसकी नाश होती गई, पैदा होती गई । इसी से इसमें अनित्यता भी है । यह बात सिद्ध है । द्र का स्वभाव ही यह है जो उत्पाद व्यय ध्रौव्य स्वरूप हो । हर समय हरएक द्रव्य में पूर्व पर्याय का व्यय या नाश तथा उत्तर पर्याय की उत्पत्ति या उदय तथा दोनों आगे व पीछे की पर्यायों में वही रहना यह ध्रुवपना बना ही रहता है । द्रव्य सदा हो परिणमनशील है। शुद्ध द्रव्यों में शुद्ध सदृश पर्यायें व प्रशुद्ध द्रव्यों में अशुद्ध विसदृश पर्यायें होती रहती हैं । कोई मी द्रव्य न सर्वथा नित्य ही रहता है न सर्वथा क्षणिक रहता है। किसी मानव के भाव में प्रहङ्कार था, जब वह नष्ट होकर उसकी मृदु मात्र या विनय भाव श्राया तब श्रहङ्कार का नाश हुआ व मृदुता का जन्म हुआ परन्तु जिस भाव में हुग्रा नह वही है । जिस आत्मा में हुया वह वही है । यदि कोई वस्तु बिलकुल सर्वथा नित्य ही हो तो वह पर्याय में न पलटने के कारण बेकार हो जावे । कौन बाजार से चावल खरीद कर लावे यदि उसकी भात पर्याय न बन सकती हो। और यदि वस्तु सर्वथा क्षणिक ही हो तो जो वस्तु ठहर ही नहीं सकती, तुर्त ही बिलकुल नाश हो जाती है, तो कौन बाजार से चावल लावे ? वे तो भात बनकर रह ही नहीं सकते, वह तो नाश हो जायेंगे । इस तरह यदि एकान्तरूप वस्तु हो तो वह न तो रह सकती है न उससे कोई काम ही लिया जा सकता है । सो ऐसा नहीं है । उपादान कारण व निमित्त कारण से बराबर काम जगत में हुआ करता है । हरएक पर्याय मूल अपने उपादान कारण के अनुकूल होती है. उसमें निमित्त काररण दूसरा सहायक होता है। सुवर्ण की डली से बाली बनी है । इसमें उपादान कारण सुवर्ण है । वह जिस तरह का है वैसी ही वाली बनी है। उसके वाली की सूरत में थाने में सहायक कारण भी हैं, जिन्हों के कारण से वह डली बाली की सूरत में नाई । उपादान कारण नित्यंपने को झलकाता है कि यह वही है । निमित्त कारण से पर्याय का पलटना सिद्ध है । मोटे २ घण्टान्तों में निमित्त कारण प्रगट होता है, हरएक पदार्थ की पर्याय पलटने में कई निमित्त कारण हो सकते हैं - सर्व विश्व के पदार्थों को पर्याय पलटने के लिए साधारण निमित्त कारण काल द्रव्य है । विशेष निमित्त और भी यथा सम्भव होते हैं । चावल को निमित्त मिला श्रग्नि, हवा, पानी का तव वे हीं भात की सूरत में श्रा गए । तब यही प्रतीति में प्राता है कि चावलपना नाश हो गया भात वन गया, इसलिए चावल पना प्रनित्य है तथापि यह वरावर झलकता है कि चावल हो का भात हुग्रा । यदि चावल का
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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