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________________ ८२ स्वयंभू स्तोत्र atri उत्थानिका - ऐसा अनेकांत तत्त्व कैसा है उसे बताते हैंतदेव च स्यान्न तदेव च स्यात्तथा प्रतीतेस्तव तत्कथंचित् नात्यन्तमन्यत्वमनन्यता च, विधेर्निषेधस्य च शून्यदोषात् ॥ ४२ ॥ " ܐ अन्वयार्थ - ( तव ) आपके मत में (तदेव च स्यात्) जीवादि वस्तु अपने स्वरूपसे है भी (तदेव च न स्यात्) तथा परके स्वरूपसे नहीं भी है ( तत् कथंचित् तथा प्रतीतेः ) ऐसा पदार्थ सर्वथा अस्ति नास्ति स्वरूप या सत् या प्रसतुरूप या भाव प्रभावरूप नहीं है, किन्तु किसी भिन्न २ अपेक्षा से है । स्व-स्वरूपादि चतुष्टयकी अपेक्षा वस्तु प्रस्तिरूप है । अर्थात् वस्तु में प्रस्तिपना या भावपना या सपना है उसी समय पर - स्वरूपादि चतुष्टय की अपेक्षा वस्तु नास्तिरूप है । प्रर्थात् वस्तु में नास्तिपना, या प्रभावपना या सपना है । ऐसा वस्तुका भाव प्रभावरूप स्वभाव प्रमारग से प्रतीति में आरहा है । ( विधेः च निषेघस्य ) इस विधि और निषेधका या अस्तित्व नास्तित्वका ( श्रत्यन्तं ग्रन्यत्वम् न, न च अनन्यता ) पदार्थ के साथ सर्वथा न तो भेदपना है और न सर्वथा अभेदपना है ( शून्यदोपात्) सर्वथा भेद या प्रभेद मानने से वस्तुके शून्य या नाश होनेका दोष श्राजायगा । श्रस्तित्व नास्तित्व दोनों स्वभाव वस्तुके हैं. सो वस्तुमें दोनों हरसमय रहते हैं । यदि ऐसा मानें कि अस्तित्वपना वस्तु से अलग रहता है । तब अस्तित्व के बिना वस्तु रह नहीं सकती - उस वस्तुका प्रभाव हो जायगा व अस्तित्व स्वभाव भी निराधार नहीं रह सकता । हरएक स्वभाव या गुरग किसी वस्तुमें ही रहेगा, भिन्नता मानने से अस्तित्वका प्रभाव होगा और यदि नास्तित्व को बिलकुल वस्तुसे भिन्न मानें तो सर्व वस्तु मिलकर एक होजायगी । नास्तित्व धर्म वस्तुमें रहता है तब ही वस्तुका वस्तुपना झलकता है कि वस्तु पर स्वरूप न होकर अपने स्वरूप से है । तथा नास्तित्व धर्म भी आधार बिना कहां रह सकेगा, उसका भी प्रभाव होजायगा । यदि ऐसा मानें कि सर्वथा अस्तित्व व नास्तित्व धर्मका वस्तु में प्रभेद ही है तब भी नहीं बनेगा । सर्वथा अस्तित्वका व नास्तित्वका श्रभेद मानने से यह कहा भी न जाकेगा । न समझा जासकेगा कि वस्तु नहीं है । तथा यदि पदार्थ में सर्वथा दोनों का अभेद मानें तो दो विरोधी धर्म विना अपेक्षा के वस्तुका प्रभाव ही कर डालेंगे। ! भावार्थ -- यहां यह दिखलाया है कि वस्तु अनेकान्त स्वरूप है । एकान्त स्वरूप मानने से बहुत दोष आयगा । हरएक वस्तु में अस्तित्व नास्तित्व दोनों धर्म किसी किसी अपेक्षा से है, एक अपेक्षा से कहना तो ठीक न होगा । जीव द्रव्य हैं क्योंकि जीव में जीव का द्रव्य, जीव का क्षेत्र, जीव की पर्याय, जीव का भाव जीव में है तब हो उसमें जीव
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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