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________________ श्री पुष्पदन्त जिन स्तुति ८१ कि जिस तरह तत्त्वका वर्णन प्रापने किया है वही यथार्थ है । यदि कोई निष्पक्ष होकर उस तत्त्वको परीक्षा प्रत्यक्ष तथा परोक्ष प्रमाणरूपी तराजूसे करेगा तो उसको सिद्ध होजायगा कि आपका कथित तत्त्व ही यथार्थ है तथा आपके विरुद्ध जिन लोगोंने किसी प्रकारका तत्व कहा है वह यथार्थ नहीं है, क्योंकि वह प्रमारणसे सिद्ध नहीं होता है । प्राप सर्वज्ञ हैं इसलिये आपने अपने दिव्य व अनन्त ज्ञानके बलसे वस्तुका स्वरूप जैसा है वैसा जाना तथा वैसा कहा । परन्तु जो विचारे सर्वज्ञ नहीं हैं अल्पज्ञ है, जो त्रिकालगोचर वस्तु की पर्यायों के ज्ञान से अनभिज्ञ हैं उनसे तत्त्वका स्वरूप यथार्थ कहते न बने तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है । श्रापका प्रतिपादित तत्त्व अनेकान्त स्वरूप है । अर्थात् हरएक वस्तु श्रनेक धर्म या स्वभावों को रखनेवाली है, वह एकांतरूप नहीं है । अर्थात् एक हो स्वभाववालो नहीं है । इसीसे जिनके मत में वस्तु एक स्वभाववाली ही है, अर्थात् भाव स्वरूप हो है, या अमाव स्वरूप ही है, नित्य ही है, या अनित्य ही है, एक रूप हो या अनेक स्वरूप ही है उनका दर्शन मानने योग्य नहीं भासता है, परन्तु श्रापका दर्शन वस्तु के स्वरूपको जैसा है वैसा बताता है । अर्थात् यह कहता है कि वस्तु एक ही समय में किसी अपेक्षा से जब भाव स्वरूप है तब ही दूसरी प्रपेक्षासे प्रभाव स्वरूप है, जब किसी अपेक्षा से नित्य स्वरूप है तब दूसरी अपेक्षा से अनित्य स्वरूप है । किसी श्रपेक्षा से एक स्वरूप है तब दूसरी अपेक्षा से अनेक स्वरूप है । इत्यादि अनेक धर्मरूप वस्तुको बताया है । सो ही प्रत्यक्ष व अनुमानादि प्रमारणों से सिद्ध होता है इसलिये श्राप हो मेरे द्वारा पूजनीय हैं । स्वामीने प्रात्ममीमांसा में स्वयं कहा है कि वस्तुमें अनेक धर्म होते हैं, उनके वन में एक की प्रधानता तब दूसरे की गौरखता होती है जैसा कहा है धर्मे धर्मेऽन्य एवार्थी वर्मिणोऽनन्तधर्मणः । अंगित्वेऽन्यतमान्तस्य शेषांत्तानां तदंगता ॥ २२ ॥ ३ भावार्थ - हर एक धर्म या पदार्थ अनंत धर्म या स्वभावों को हर समय रखनेवाला है। तथा हरएक धर्म या स्वभाव में भिन्न २ ही अर्थ हैं । एक स्वभाव दूसरे स्वभावसे भिन्न रूप है । इसीलिये जब उनमें से एक किसी को मुख्य करके वर्णन करेंगे तव हो दूसरे स्वभाव जिनका कथन एकसाथ नहीं होसकता गौण होजायेंगे क्योंकि एक ही काल उनको एकसाथ कहने की शक्ति वचन में नहीं है । तथापि वस्तु तो अनेकांत स्वरूप ही है, वह एकांतरूप कदापि नहीं है । हे सुविधि ! प्रापने कहा एकांत हरण सप्रमाणसिद्ध, पद्धरी छंद । तत्त्व, जो दिव्यज्ञान से तत् प्रतत्त्व । नहि जान सकें तुमसे विरुद्ध ॥ ४१ ॥
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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