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________________ २४४ ] परमात्मप्रकाश दुःखस्य कारणं मत्वा मनसि देहमपि इमं त्यजन्ति । यत्र न प्राप्नुवन्ति परमसुखं तत्र किं सन्तः वसन्ति || १५३ || आगे फिर भी देहको दुःखका कारण दिखलाते हैं - ( दुःखस्य कारणं ) नरकादि दुःखका कारण ( इमं देहमपि ) इस देहको ( मनसि ) मनसे ( मत्वा) जानकर ज्ञानीजीव ( त्यजति ) इसका ममत्व छोड़ देते हैं, क्योंकि ( यन्त्र ) जिस देह में (परमसुखं) उत्तम सुख ( न प्राप्नुवंति) नही पाते, (तत्र) उसमें (संतः ) सत्पुरुष ( कि वसंति) कैसे रह सकते हैं ? भावार्थ - वीतराग परमानंद जो आत्म-सुख उससे विपरीत नरकादिके दुःख, उनका कारण यह शरीर, उसको बुरा समझकर ज्ञानी जीव देहकी ममता छोड़ देते हैं, और शुद्धात्मस्वरूपका सेवन करते हैं, निजस्वरूपमें ठहरकर देहादि पदार्थों में प्रीति छोड़ देते हैं । इस देह में कभी सुख नहीं पाते, सदा अधि-व्याधिसे पीड़ित हो रहते हैं । पंचेन्द्रियोंके विषयोंसे रहित जो शुद्धात्मानुभूतिरूप परमसुख वह देहके ममत्व करनेसे कभी नहीं मिल सकता । महा दुःखके कारण इस शरीर में सत्पुरुष कभी नहीं रह सकते । देहसे उदास होके संसारकी आशा छोड़ सुखका निवास जो सिद्धपद उसको प्राप्त होते हैं । और जो आत्म-भावनाको छोड़कर सतोपसे रहित होके देहादिक में राग 1 करते हैं, वे अनन्त भव धारण करते हैं संसार में भटकते फिरते हैं ।। १५३ ।। अथात्मायचसुखे रतिं कुर्विति दर्शयति अप्पायत्तउ जं जि सुहु ते जि करि संतो | पर सुहु वढ चिंतंताहं हियइ ण फिटइ सोसु ॥ १५.२ ॥ आत्मायत्तं यदेव सुखं तेनैव कुरु संतोषम् । परं सुखं वत्स चिन्तयतां हृदये न नश्यति शोपः ।। १५४ ।। आगे यह उपदेश करते हैं, कि तू आत्म-सुख में प्रीति कर - ( (वत्स) हे निष्य, (यदेव) जो ( आत्मायत्तं सुखं) परद्रव्यसे रहित आत्माधीन सुख है, ( तेनैव ) उीमें ( संतोषं) सन्तोष (कुरु) कर, (परंसुखं ) इन्द्रियाधीन सुखको (चितयतां ) चिन्तयन करनेवालोंके (हृदये) चित्तका ( शोषः ) दाह ( न नश्यति) नहीं मिटता । भावार्थ - आत्माधीन मुख आत्माके जानने मे उत्पन्न होता है, इसलिये न आत्मा के अनुभव से सन्तोष कर, भोगोंकी वांछा करनेसे चित्त शान्त नहीं होता । श्री
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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