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________________ परमात्मप्रकाश अथ जोइय देहु परिच्चयहि देहु ण भल्लउ हो । देह - विभिउ गाणमउ सो तुहुँ अप्पा जोइ ॥ १५२ ॥ [ २४३ योगिन् देहं परित्यज देहो न भद्रः भवति । देहविभिन्नं ज्ञानमयं तं त्वं आत्मानं पश्य ।।१५२।। आगे देह स्नेहसे छुड़ाते हैं - ( योगिन् ) हे योगो, (देहं ) इस शरीर से ( परित्यज) प्रीति छोड़, क्योंकि ( देहः ) यह देह (भद्रः न भवति) अच्छा नहीं है, इसलिये ( देहविभिन्नं) देह से भिन्न ( ज्ञानमयं ) ज्ञानादि गुणमय (तं आत्मानं ) ऐसे आत्माको ( त्वं ) तू (पश्य ) देख । भावार्थ - नित्यानन्द अखण्ड स्वभाव जो शुद्धात्मा उससे जुदा और दुःखका मूल तथा महान् अशुद्ध जो शरीर उससे भिन्न आत्माको पहचान, और कृष्ण नील कापोत इन तीन अशुभ लेश्याओंको आदि लेकर शुभ विभावभावों को त्यागकर, निजस्वरूपका ध्यान कर । ऐसा कथन सुनकर शिष्यने पूछा, कि हे प्रभो, इन खोटी लेश्याओं का क्या स्वरूप है ? तब श्रीगुरु कहते हैं— कृष्णलेश्याका धारक वह है, जो अधिक क्रोधी होवे, कभी वैर न छोड़े, उसका वैर पत्थर की लकीरकी तरह हो, महा विषयी हो, परजीवों की हंसी उड़ाने में जिसके शंका न हो, अपनी हंसी होनेका जिसको भय न हो, जिसका स्वभाव लज्जा रहित हो, दया-धर्मसे रहित हो, और अपने से बलवान् के वश में हो, गरीबको सतानेवाला हो, ऐसा कृष्णलेश्यावालेका लक्षण कहा । नोललेश्या वाले के लक्षण कहते हैं, सो सुनो - जिसके धन-धान्यादिककी अति ममता हो, और महाविषयाभिलाषी हो, इन्द्रियोंके विषय सेवता हुमा तृप्त न हो । कापोतलेश्याका धारक रणमें मरना चाहता है, स्तुति करनेसे अति प्रसन्न होता है । ये तीनों कुलेश्या के लक्षण कहे गये हैं, इनको छोड़कर पवित्र भावोंसे देहसे जुदे जीवको जानकर अपने स्वरूपका ध्यान कर । यही कल्याणका कारण है || १५२ ।। व्यथ- दुक्खहं कारण मुवि मणि देहु वि एहु चयंति 1 जित्यु पावहिं परमसुहु तित्थु कि संत वसंति ॥ १५३॥
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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