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________________ [ २१३ आगे लोभकषायके दोषको दृष्टान्तसे पुष्ट करते हैं - ( लोहं लगित्वा) जैसे लोहका सम्बन्ध पाकर ( हुतवहं ) अग्नि ( तले ) नीचे रक्खे हुए ( अधिकरणे उपरि ) अहरन ( निहाई) के ऊपर ( घनपातनं ) घनकी चोट, (संदशकुलु चनं) संडासीसे चना, (पतत् त्रोटनं ) चोट लगनेसे टूटना, इत्यादि दुःखोंको सहती है, ऐसा ( पश्य ) देख | परमात्मप्रकाश भावार्थ - लोहेकी सङ्गतिसे लोकप्रसिद्ध देवता अग्नि दुःख भोगती है, यदि लोहेका सम्बन्ध न करे तो इतने दुःख क्यों भोगे, अर्थात् जैसे अग्नि लोहपिण्डके सम्बन्धसे दुःख भोगती है, उसी तरह लोह अर्थात् लोभके कारण से परमात्मतत्त्वको भावनासे रहित मिध्यादृष्टि जीव घनपात के समान नरकादि दुःखों को बहुत काल तक भोगता है ।। ११४ । are स्नेहपरित्यागं कथयति - जोय हु परिचय हि खेहु ग भल्लउ होइ । हासत्तउ सयलु जगु दुक्खु सहंतर जोइ ॥ ११५ ॥ योगिन् स्नेहं परित्यज स्नेहो न भद्रो भवति | स्नेहासक्तं सकलं जगद् दुःखं सहमानं पश्य ।।११५|| आगे स्नेहका त्याग दिखलाते हैं - ( योगिन् ) हे योगी, रागादि रहित वीतराग परमात्मपदार्थके ध्यानमें ठहरकर ज्ञानका वैरी (स्नेहं ) स्नेह (प्रस) को ( परित्यज) छोड़, (स्नेहः ) क्योंकि स्नेह ( भद्रः न भवति) अच्छा नहीं है, (स्नेहासक्त ) स्नेहमें लगा हुआ (सकलं जगत् ) समस्त संसारीजीव ( दुःखं सहमानं ) अनेक प्रकार शरीर और मनके दुःख सह रहे हैं, उनको तू (पश्य) देख । ये संसारीजीव स्नेह रहित शुद्धात्मतत्त्वकी भावनासे रहित हैं, इसलिए नाना प्रकारके दुःख भोगते हैं । दुःखका मूल एक देहादिकका स्वेह ही है । भावार्थ - यहां भेदाभेदरत्नत्रयरूप मोक्षके मार्गले विमुख होकर मिथ्यात्व रागादिमें स्नेह नहीं करना, यह सारांश है । क्योंकि ऐसा कहा भी है, कि जबतक यह जीव जगत् से स्नेह न करे, तब तक सुखी है, और जो स्वेह सहित हैं, जिनका मन स्नेहसे बंध रहा है, उनको हर जगह दुःख ही है ॥ ११५ ॥
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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