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________________ 4 २१२ ] पाते हैं । ऐसा जानकर इन विषयों में विवेकी कैसे रागको प्राप्त होवे ? कभी विपयाभिलाषी नहीं होते | पतंगादिक एक-एक विषयमें लीन हुए नष्ट हो जाते हैं, लेकिन जो पांच इन्द्रियोंके विषयों में मोहित हैं, वे वीतराग चिदानन्दस्वभाव परमात्मतत्त्व उसको न सेवते हुए, न जानते हुए, और न भावते हुए, अज्ञानी जोव मिथ्या मार्गको वांछते, कुमार्गकी रुचि रखते हुए नरकादि गति में घानी में पिलना, करोंतसे विदरना, और शूलीपर चढ़ना इत्यादि अनेक दुःखोंको देहादिककी प्रीतिसे भोगते हैं | ये अज्ञानी जीव वीतरागनिर्विकल्प परमसमाधि से पराङमुख हैं, जिनके चित्त चंचल हैं, कभी निश्चल चित्तकर निजरूपको नहीं ध्यावते हैं । और जो पुरुष स्नेहसे रहित हैं, वीतरागनिर्विकल्प समाधिमें लीन हैं, वे ही लीलामात्रमें संसारको तैर जाते हैं ॥ ११२ ॥ व्यथ लोभकपायदोपं दर्शयति परमात्मप्रकाश जोइय लोहु परिच्चयहि लोहु ण भल्लउ होइ । लोहासत्तउ सयलु जगु दुक्खु सहंतउ जोइ ॥ ११३॥ योगिन् लोभं परित्यज लोभो न भद्रः भवति । लोभासक्त ं सकलं जगदु दुःखं सहमानं पश्य ।।११३|| आगे लोभकषायका दोष कहते हैं - ( योगिन् ) हे योगी, तू (लोभ) लोभको (परित्यज) छोड़, ( लोभः) यह लोभ (भद्रो न भवति) अच्छा नहीं है, क्योंकि (लोभासक्त') लोभमें फंसे हुए ( सकलं जगत् ) सम्पूर्ण जगत्को ( दुःखं सहमानं ) दु:ख सहने हुए (A) देख | भावार्थ - लोभकषाय से रहित जो परमात्मस्वभाव उससे विपरीत जो इस भव परभवका लोभ, धन धान्यादिका लोभ उसे तू छोड़ । क्योंकि लोभी जीव गव भवमें दु:ख भोगते हैं, ऐसा तू देख रहा है ।। ११३ ॥ अथामेव लोकपायदोपं दृष्टान्तेन समर्थयति — तलि हिरण वरि घणवडणु संडस्सय लु चोडु | लोहहं लग्गवि हुयवहहं पिक्खु पडंतर तोडु ॥ ११४ ॥ तले अधिकरणं उपरि घनपातनं संदशकलुञ्चनम् । लोहं लगित्वा हुतवहस्य पश्य पतत् त्रोटनम् ॥। ११४।।
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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