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________________ १६२ ] परमात्मप्रकाश निदानबन्धपूर्वक दान तप आदिकसे उपार्जन किये जो पुण्यकर्म हैं, वे हेय हैं । क्योंकि वे निदानबन्धसे उपार्जन किये पुण्यकर्म जीवको दूसरे भव में राजसम्पदा देते हैं। उस राज्यविभूतिको अज्ञानी जीव पाकर विषय भोगोंको छोड़ नहीं सकता, उससे नरकादिकके दुःख पाता है रावणकी तरह इसलिये अज्ञानियोंके पुण्य-कर्म भी होता है, और जो निदानबन्ध रहित ज्ञानी पुरुष हैं, वे दूसरे भव में राज्यादि भोगोंको पाते हैं, तो भी भोगोंको छोड़कर जिनराजकी दीक्षा धारण करते हैं। धर्मको सेवनकर ऊर्ध्वगतिगामी बलदेव आदिककी तरह होते हैं। ऐसा दूसरी जगह भी कहा है, कि भवान्तरमें निदानबन्ध नहीं करते हुए जो महामुनि हैं, वे महान् तपकर स्वर्गलोक जाते हैं । वहांसे चयकर बलभद्र होते हैं। वे देवोंसे अधिक सुख भोगकर राज्यका त्याग करके मुनिव्रतको धारणकर या तो केवलज्ञान पाके मोक्षको ही पधारते हैं, या बड़ी ऋद्धिके धारी देव होते हैं, फिर मनुष्य होकर मोक्षको पाते हैं ।।५७।। ___अथ निर्मलसम्यक्त्वाभिमुखानां मरणमपि भद्रं, तेन विना पुण्यमपि समीचीनं न भवतीति प्रतिपादयति वर णिय-दंसण-अहिमुहउ मरणु वि जीव लहेसि । मा णिय-दसण-विम्मुहउ पुण्णु वि जीव करेसि ॥५८।। वरं निजदर्शनाभिमुखः मरणमपि जीव लभस्व । मा निजदर्शनविमुखः पुण्यमपि जीव करिष्यसि ।।५८।। आगे ऐसा कहते हैं, कि निर्मल सम्यक्त्वधारी जीवोंको मरण भी सुखकारी है, उनका मरना अच्छा है, और सम्यक्त्वके विना पुण्यका उदय भी अच्छा नहीं है(जीव) हे जोव, (निजदर्शनाभिमुखः) जो अपने सम्यग्दर्शनके सन्मुख होकर (मरणमपि) मरणको भी (लभस्व वरं) पावे, तो अच्छा है, परन्तु (जीव) हे जीव, (निज. दर्शनविमुखः) अपने सम्यग्दर्शनसे विमुख हुआ (पुण्यमपि) पुण्य भी (करिष्यसि ) कर (मा वरं) तो अच्छा नहीं । भावार्थ-निर्दोप निजपरमात्माकी अनुभतिको रुचिरूप तीन गुप्तिमयी जो निश्चयचारिन उससे अविनाभावी (तन्मयी) जो वीतरागनिश्चयसम्यक्त्व उसके सन्मुख हुआ है जीव, जो तु मरण भी पावे, तो दोप नहीं, और उस सम्यक्त्व के बिना मिथ्यात्व अवस्थामें पुण्य भी करे तो अच्छा नहीं है। जो सम्यक्त्व रहित मिध्याहाट
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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