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________________ परमात्मप्रकाश [ १५१ या निशा सकलानां देहिनां योगी तस्यां जागति । यत्र पुन: जागर्ति सकलं जगत् तां निशां मत्वा स्वपिति ||४६ १ । । आगे स्थलसंख्याके सिवाय क्षेपक दोहा कहते हैं - (या) जो ( सकलानां देहिनां ) सब संसारी जीवोंकी (निशा) रात है, (तस्यां ) उस रात में (योगी) परम तपस्वी (जागत) जागता है, (पुनः) और (यत्र ) जिसमें (सकलं जगत् ) सब संसारी जीव (जागत) जाग रहे हैं, (तां) उस दशाको (निशां मत्वा ) योगी रात मानकर ( स्वपिति ) योग निद्रामें सोता है । भावार्थ - जो जीव वीतराग परमानन्दरूप सहज शुद्धात्माकी अवस्था से रहित हैं, मिथ्यात्व रागादि अन्धकारसे मंडित हैं, इसलिये इन सवोंको वह परमानन्द अवस्था रात्रिके समान मालूम होती है । कैसे ये जगत के जीव हैं, कि आत्मज्ञानसे रहित हैं, अज्ञानी हैं, और अपने स्वरूपसे विमुख हैं, जिनके जाग्रत - दशा नहीं हैं, अचेत सो रहे हैं, ऐसी रात्रिमें वह परमयोगी वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञानरूपी रत्नदीपके प्रकाशसे मिथ्यात्व रागादि विकल्प- जालरूप अन्धकारको दूरकर अपने स्वरूप में सावधान होने से सदा जागता है । लथा शुद्धात्माके ज्ञानसे रहित शुभ अशुभ मन, वचन, काय परिणमनरूप व्यापारवाले स्थावर जंगम सकल अज्ञानी जीव परमात्मतत्त्वकी भावनासे परान्मुख हुए विषय कषायरूप अविद्या में सदा सावधान हैं, जाग रहे हैं, उस अवस्थामें विभावपर्यायके स्मरण करनेवाले महामुनि सावधान ( जागते ) नहीं रहते । इसलिए संसारकी दशासे सोते हुए मालूम पड़ते हैं । जिनको आत्मस्वभाव के सिवाय विषय- कषायरूप प्रपंच मालूम भी नहीं है, उस प्रपंचको रात्रिके समान जानकर उसमें याद नहीं रखते । मन, वचन, कायकी तीन गुप्ति में अचल हुए वीतराग निर्विकल्प परम समाधिरूप योग निद्रा में मगन हो रहे हैं । सारांश यह है, कि ध्यानी मुनियों की आत्मस्वरूप ही गम्य है, प्रपंच गम्य नहीं है, और जगतके प्रपंची मिथ्यादृष्टि जीव उनकी आत्मस्वरूपकी गम्य नहीं है, अनेक प्रपंचों में (झगड़ों में ) लगे हुए हैं । प्रपंचकी सावधानी रखनेको भूल जाना वही परमार्थ है, तथा बाह्य विषयों में जाग्रत होता ही भूल है ||४६१।। अथ ज्ञानी पुरुषः परमवीतरागरूपं समभावं मुक्त्वा वहिर्विषये रागं न गन्ती दर्शयति
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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