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________________ १५० ] परमात्मप्रकाश भावार्थ- जो तपोधन धन धान्यादिका राग त्यागकर परमं शान्तभावको आदरता है, राजा रंकंको समान जानता है, उसके दोष कभी नहीं हो सकता । सदा स्तुति के योग्य है, तो भी शब्दकी योजनासे निन्दा द्वारा स्तुति की गई है वह इस तरहसे है कि शत्रु शब्द से कहे गये जो ज्ञानावरणादि कर्म-शत्रु उनको छोड़कर पर शब्दसे कहे गये परमात्माका आश्रय करता है । इसमें निन्दा क्या हुई, बल्कि स्तुति ही हुई । परन्तु लोकव्यवहारमें अपने अधीन शत्रुको छोड़कर किसी कारण से पर शब्दसे कहे गये शत्रुके आधीन आप होता है, इसलिये लौकिक- निन्दा हुई; यह शब्द के छल से निन्दा-स्तुति की गई । वह शब्द के श्लेष होनेसे रूपअलंकार कहा गया है ॥४५॥ अथ - - वि दोसु हवेइ तसु जो समभाउ करेइ । वियलु हवेविणु इक्कलङ उपरि जगहं चडेइ ॥ ४६ ॥ अन्यः अपि दोषः भवति तस्य यः समभावं करोति । विकलः भूत्वा एकाकी उपरि जगतः आरोहति ॥४६॥ 1 आगे समदृष्टिकी फिर भी निन्दा-स्तुति करते हैं - (यः) जो तपस्वी महा मुनि (समभाव) संमभावको (करोति) करता है, (तस्य) उसके (अन्यः अपि) दूसरा भी ( दोषः ) दोष (भवति) होता है, जो कि ( विकलः भूत्वा ) शरीर रहित होके अथवा बुद्धि धन वगैरः से भ्रष्ट होकर ( एकाकी) अकेला ( जगतः उपरि ) लोकके शिखरपर अथवा सबके उपर (आरोहति ) चढ़ता है । है, भावार्थ—जो तपस्वी रागादि रहित परम भावना करता है, उसकी शब्द के छल से तो निन्दा से भ्रष्ट होकर लोक अर्थात् लोकोंके ऊपर चढ़ता है । असल में ऐसा अर्थ है, कि विकल अर्थात् शरीरसे रहित (मोक्ष) पर विराजमान हो जाता है । यह स्तुति ही है । उपशमभावरूप निजं शुद्धात्माकी कि विकल अर्थात् बुद्धि वगैर यह लोक - निन्दा हुई । लेकिन होकर तीन लोकके शिखर क्योंकि जो अनन्त सिद्ध हुए, तथा होंगे, वे शरीर रहित निराकार होके जगत्के शिखर पर विराजे हैं ||४६ || यथ स्थल संख्यावाह्यं प्रक्षेपकं कथयति जागसि सयलहं देहियहं जोग्गिउ तहिं जग्गेइ | जहिं पुणु जग्गइ सयलु जगु सा णिसि मणिवि सुवेड़ ॥१६७९ ॥
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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