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________________ [ ७६ ] भावार्थ-जो ब्राह्मणादि वर्ण-भेद हैं, और पुरुष लिंगादि तीन लिंग हैं, वे यद्यपि व्यवहारनयकर देहके सम्बन्धसे जीवके कहे जाते हैं, तो भी शुद्धनिश्चयनयकर आत्मासे भिन्न हैं, और साक्षात् त्यागने योग्य हैं, उनको वीतरागनिर्विकल्पसमाधिसे रहित मिथ्यादृष्टि जीव अपने जानता है, और उन्हींको मिथ्यात्वसे रहित सम्यग्दृष्टि जीव अपने नहीं समझता । आपको तो वह ज्ञानस्वभावरूप जानता है ।।८७॥ अथ अप्पा वंदउ खवणु ण वि अप्पा गुरउ ण होइ । अप्पा लिंगिउ एक्कु ण वि णाणिउ जाणइ जोइ ।।८८॥ आत्मा वन्दकः क्षपणः नापि आत्मा गुरवः न भवति । आत्मा लिङ्गी एकः नापि ज्ञानी जानाति योगी ॥८॥ आगे वन्दक क्षपणकादि भेद भी जीवके नहीं हैं, ऐसा कहते हैं- (आत्मा) आत्मा (वंदकः क्षपणः नापि) बौद्धका आचार्य नहीं है, दिगम्बर भी नहीं है, (आत्मा) आत्मा (गुरवः न भवति) श्वेताम्बर भी नहीं है, (आत्मा) आत्मा (एकः अपि) कोई भी (लिंगी) वेशका धारी (न) नहीं है, अर्थात् एक दण्डो, त्रिदण्डी, हंस, परमहंस, सन्यासी, जटाधारी, मैंडित, रुद्राक्षकी माला तिलक कूलक घोष वगैरः भेषों में कोई भी भेषधारी नहीं है, एक (ज्ञानी) ज्ञानस्वरूप है, उस आत्माको (योगी) ध्यानी मुनि ध्यानारूढ़ होकर (जानाति) जानता है, ध्यान करता है। भावार्थ-यद्यपि व्यवहारनयकर यह आत्मा वंदाकादि अनेक भेषोंको धरता है, तो भी शुद्धनिश्चयनयकर कोई भी भेष जीवके नहीं है, देहके हैं। यहां देहके आश्रयसे जो द्रव्यलिंग है, वह उपचरितासभूतव्यवहारनयकर जीवका स्वरूप कहा जाता है, तो भी निश्चयचयकर जीवका स्वरूप नहीं है। क्योंकि जब देह ही जीवकी नहीं, तो भेष कैसे हो सकता है ? इसलिये द्रव्यलिंग तो सर्वथा ही नहीं है, और वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरूप भावलिंग यद्यपि शुद्धात्मस्वरूपका साधक है, इसलिये उपचारनयकर जीवका स्वरूप कहा जाता है, तो भी परमसूक्ष्म शुद्धनिश्चयनयकर भावलिंग भी जीवका नहीं है। भावलिंग साधनरूप है, वह भी परम अवस्थाका साधक नहीं है ॥८॥
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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