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________________ [ कुन्दकुन्द परमागम टोडरमल और प्राचार्यों में कुन्दकुन्द मेरे जीवन हैं, सर्वस्व हैं । आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी भी मेरे हृदय की गहराई में इसीलिए पैठ हैं कि आचार्य कुन्दकुन्द और आचार्यकल्प पण्डित टोडरमल को पढ़ने की प्रेरणा एवं उनके ग्रंथों को समझने की दृष्टि उनसे ही प्राप्त हुई है। इस सन्दर्भ मे यह बात भी कम विचारणीय नहीं है कि प्राचार्य कुन्दकुन्द और पंडित टोडरमल का जैसा प्रसार-प्रचार अकेले स्वामीजी ने किया है, वैसा क्या हम सब मिलकर भी कर सकेंगे? आचार्य कुन्दकुन्द किसी व्यक्ति विशेष के नहीं, सम्पूर्ण दिगम्बर जैन समाज के हैं; सम्पूर्ण दिगम्बर जैन समाज के ही क्यों, वे तो उन सभी आत्मार्थियों के हैं, अध्यात्मप्रेमियों के हैं, जो उनके साहित्य का अवलोकन कर आत्महित करना चाहते हैं, भवसागर से पार होना चाहते हैं। उनके प्रति श्रद्धा समर्पित करने का अधिकार सभी को है और उनके व्यक्तित्व एवं कर्तत्व को उजागर करने का उत्तरदायित्व भी समान रूप से सभी का है, तथापि दिगम्बर जैन समाज की विशेष जिम्मेदारी है। मुझे आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है कि सम्पूर्ण दिगम्बर जैन समाज सभी प्रकार के प्रापसी मतभेदों को भुलाकर इस महान कार्य को बड़ी संजीदगी से सम्पन्न करेगी। अल्प समय में तैयार की गई मेरी यह कृति भी इस दिशा में किया गया एक लघु प्रयास है, प्राचार्य कुन्दकुन्द के प्रति मेरी श्रद्धा का समर्पण मात्र है। मैं इसके लिए कुछ अधिक कर भी नहीं पाया हूँ। प्राचार्य कुन्दकुन्द के पंच परमागमों के प्रकाशन के अवसर पर समय-समय पर मैंने जो प्रस्तावनाएँ लिखी थीं, यह कृति उन सबका सुव्यवस्थित परिवचित रूप ही है। इसमें अधिकांश सामग्री तो उक्त प्रस्तावनाओं की ही है, पर बहुत कुछ नया भी है । अन्तिम अध्याय कुन्दकुन्द शतक एकदम नया है, शेष सामग्री में परिवर्द्धन तो हुआ है, पर मूलतः कोई अन्तर नहीं है। प्राचार्य कुन्दकुन्द के विदेहगमन पर कुछ नये विचार अवश्य व्यक्त किये गये हैं। सब-कुछ मिलकर साधारण पाठकों के लिए यह कृति बहुत-कुछ उपयोगी बन गई है, क्योंकि इसमें उपलब्ध साक्ष्यों के माधार पर प्राचार्य
SR No.010068
Book TitleKundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1988
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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