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________________ १४६ ] काव्यालङ्कारसूत्रवत्ती [ सूत्र ३ रतिविगलितबन्धे केशपाशे सुकेश्याः । इत्यत्र सुकेश्या इत्यस्य च साभिप्रायत्वं व्याख्यातम् ॥ २ ॥ अर्थवैमल्य प्रसाद । ३,२,३ । अर्थस्य वैमल्यं प्रयोजकमात्रपरिग्रहः प्रसादः । यथासवर्णा कन्यका रूपयौवनारम्भशालिनी । विपर्ययस्तु — उपास्तां हस्तो मे विमलमणिकाची पदमिदम् । कालीपदमित्यनेनैव नितम्बस्य लक्षितत्वात् विशेषणस्याप्रयोजक त्वमिति ॥ ३ ॥ इस [ पूर्वोक्त उदाहरण ] से 'सुकेशी के रतिकाल में खुले हुए केशपाश में ' इत्यादि [ उदाहरण ] में 'सुकेश्या' इस [ पद ] के 'साभिप्रायत्व' की व्याख्या समझ लेनी चाहिए ॥ २ ॥ दूसरे श्रर्थगुरण 'प्रसाद' का लक्षण अगले सूत्र में करते है श्रर्थं का नैर्मल्य [ श्रर्थात् स्पष्टता ] 'प्रसाद' [ गुण कहलाता ] है । अर्थ का नैर्मल्य विवक्षित अर्थ के समर्पक - [- प्रयोजक ] पद का प्रयोग 'प्रसाद' [ नामक श्रर्थगुण ] है । जैसे रूप और नवयौवन के प्रारम्भ से युक्त यह सवर्णा कन्या है । [ यह अपने ही क्षत्रिय प्रादि व की होने से समान वर्ण वाली प्रथवा सुन्दर इस का बोधक 'सवर्णा' पद कन्या की उपादेयता अर्थात् विवाहयोग्यता का सूचक है ]। इसका विपर्यय [ प्रभाव होने पर 'प्रपुष्टार्थत्व' और 'अनर्थकत्व' दोष हो जाते है । उनमें से 'पुष्टार्थत्व' का उदाहरण देते है ] जैसे मेरा हाथ विमल मणियो को तगड़ी के इस स्थान को स्पर्श करे । इसमें ‘काञ्ची पदं' इस [ कथन ] से ही नितम्ब का लक्षणा से बोध हो जाने से [ काञ्ची के साथ दिए हुए विमलमणि ] विशेषण प्रप्रयोजक [ अविaft a पुष्टार्थं ] है । [ अतः इस प्रत्युदाहरण में 'प्रसाद' गुण' नहीं है ] ॥ ३ ॥ तृतीय प्रगुरण श्लेष का निरूपण प्रगले सूत्र में करते है
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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