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________________ सूत्र २५) तृतीयाधिकरणे प्रथमोऽध्यायः ६.१३५ विपर्ययंस्तु भूयान सुलभश्च । लोकाश्चात्र भवन्ति पदन्यासस्य गाढत्वं वदन्त्योजः कवीश्वराः। अनेनाधिष्ठिताः प्रायः शब्दाः श्रोत्ररसायनम् ॥ १॥ लथत्वमोनसा मिश्रं प्रसादञ्च प्रचक्षते । अनेन न विना सत्यं स्वदते काव्यपद्धतिः ॥ २ ॥ यत्रैकपदवद्भाव पदानां भूयसामपि । अनालक्षितसन्धीनां स श्लेषः परमो गुणः ॥३॥ प्रतिपादं प्रतिश्लोकमेकमार्गपरिग्रहः । दुर्बन्धों दुर्विभावश्च समवेति गुणो मतः॥४॥ किया है, वह फेवि की अपनी नई कल्पना या नई सूझ है । यही उसका 'भोज्ज्वल्य' गुण है । जहाँ कवि की कल्पना में कोई नूतनता नही रहती वहां लोकपिटाई सो प्रतीति होती है और कोई चारुता नही रहती। [इस प्रोज्ज्वल्य के विपर्यय रूप] प्रत्युदाहरण बहुत और सुलभ है। [अतः उनको दिखलाने को प्रावश्यकता यहाँ नहीं है।] [इस प्रकार अन्यकार ने सूत्र और वृत्ति द्वारा इस प्रकार के शब्द गुणो का प्रतिपादन कर दिया। अब उन्हीं दस गुणों को श्लोकों द्वारा दिखलाने के लिए कुछ संग्रह श्लोक स्वयं लिखते है ] इस [अर्थात् शब्द गुणो के स्वरूप निरूपण ] के विषय में [ निम्नलिखित ११ ] श्लोक भी है। [इन ११ श्लोको में क्रमशः उन्हीं दस 'शब्द-गुणों' का निरूपए किया गया है । जो इस प्रकार है ___१. पद रचना को गाढ़ता को कवीश्वर लोग 'मोज' [नामक गुण] फहते है । इस [पोज गुण ) से युक्त पद प्रायः [स्फूति पैदा करने वाले ] कानो के लिए रसायन के समान [स्फूर्तिदायक ] होते है। २. प्रोन से मिश्रित [ रचना के ] शैथिल्य को 'प्रसाद' [ गुण नाम से ] कहते है । इस [ प्रसाद गुण ] के बिना वस्तुतः काव्य रचना का आनन्द हो नहीं पाता है। ३. जहाँ सन्धि के दिखाई न देने पर भी बहुत से पदो में एकपद के समान प्रतीति हो वह 'श्लेष [नामक ] परम गुण है। ४. [श्लोक के ] प्रत्येक पाव में और प्रत्येक श्लोक में एक-से मार्ग
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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