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________________ 'दूर और पास हमें कुछ भी नहीं दीखता है । इस भाँति हरेक सुन्दरता ज़रूरतसे अधिक पास ले लेनेपर असुन्दर और फिर असत् हो जायगी ।. . __इसलिए, हमारा प्रत्येकके प्रति एक प्रकारका सम्मानका अन्तर चाहिए ही । उस अन्तरको मिटाकर भोगकी निकटता पैदा की कि वहाँ सुंदरता भी लुप्त हुई। __यह रोज़का ही अनुभव है। हम चीजोंको देखते है और वे सुन्दर लगती हैं । सुन्दर लगती हैं, तो हम उन्हें चाहने लगते है। चाहने लगते है तो उन्हें पानेकी लालसा करते है । इस लालसाको बुद्धिसे हम उन्हें छूते है,-पकड़ते है, अर्थात् उन्हें मर्यादासे अधिक अपने निकट ले लेते है। परिणाम होता है कि हमारा संभ्रम मिट जाता है और जिसको मनोरम मानकर चाहा था वह धीमे धीमे बीभत्स हो जाता है और हमारे चित्तको ग्लानि होने लगती है । तब उकता कर उसे छोड़ हम दूसरी ओर लपकते है। पर वहाँ भी वही होता है और वहाँ भी अन्ततः ग्लानि हाथ आती है। • अनुभवमें आया है कि जिस जगहमें हमें बिल्कुल दिलचस्पी नहीं हुई है, वहाँके फोटोग्राफ लुभावने हो जाते है। खंडहर हमारी निगाहमें खंडहर है लेकिन उसीका चित्र कमी हमारे लिए इतना सुन्दर हो जाता है कि हम सोच भी नहीं सकते थे। ___ यह इसीलिए कि फोटोग्राफ़से हमारी पर्याप्त अलहदगी है। फोटोग्राफमे हम उस दृश्यको एकत्रित भावमें देख सकते है। आग्रह वहाँ हमारा मंद है। वहाँ हमारे मनकी स्थितिसे विलग भी उसकी सत्ता है । मानों उस चित्रका अस्तित्व ही नहीं, व्यक्तित्व है। २०५
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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