SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिणाम यह कि दूरी भी कभी बिल्कुल नष्ट नहीं हो जानी चाहिए । दूरी बिलकुल न रहे तो आँख बिलकुल न देख पाये, बुद्धि बिलकुल न समझ पाये । और मनपर जोर इतना पड़े कि ठिकाना नहीं और तिसपर भी चहुँ ओर सिवा अँधेरेके कुछ न प्रतीत हो । सब वस्तुओं, सब स्थितियों, सब दृश्यों और व्यक्तियोंके प्रति यह समादरकी दूरी इष्ट है । इसको विनय-भाव कहिए, अनासक्ति कहिए, समभाव कहिए, असंलग्नता कहिए, दृष्टिकी वैज्ञानिकता कहिए, चाहे जिस नामसे इसे पुकारिए | संबंध में एक प्रकारकी तटस्थता ही चाहिए। जो भी हम छू रहे, देख रहे, चाह रहे है, ध्यान रखना चाहिए कि उसका अपना भी स्वत्व है । वह प्रयोजनीय पदार्थ ही नहीं है । वह भी अपने-आपमें सजीव और सार्थक हो सकता है । उसमें भी वह है, जो हममें है । एक ही व्यापक तत्त्व दोनोमें है। जो हम है वही वह है । इसलिए किसी अविनयका अथवा श्राहरणका संबंध हमारा कैसे हो सकता है ? संबंध प्रेम, ध्यानंद और कृतज्ञताका हो सकता है । जिसको कल्पना कहा, उसका इसी जगह उपयोग है । जो हम हैं वह तो कोई भी नहीं है । हम जैसे बुद्धिमान् हैं, 1 क्या कोई दूसरा वैसा हो सकता है ? साफ बात तो यह है कि हम हमी हैं । कोई भला हम जैसा क्या होगा ? असंस्कारी अहंकारी बुद्धि इसी प्रकार सोचती है । लेकिन इससे यही सिद्ध होता है कि ऐसा सोचनेवालेकी कल्पनाशक्ति क्षीण हो गई है । कल्पना हमें तुरन्त बता देती है कि हम अनेकोंमें एक हैं और अपने में अहंकार अनुभव करनेका तनिक भी २०६
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy