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________________ चिन्तक कलाकारके मुक्त विचार भी ठीक ऐसे ही होते हैं । वे सत्योन्मुख अभेदानुभूतिकी चिन्तन-लालसासे अनुप्राणित, सजीव-सहज, निष-अखंड, सहिष्णु-उदार और वेगात्मक होते हैं। ___ ऊपरा ऊपरी दर्शक नदीका एक खंड देखकर कहता है, 'ओह, कितना तरंग ताडव, कितना अनियमित बिखरा-बिखरापन, जिसमे कोई एक सूत्रता ही न दीखे !' पर वह भूलता है । थोड़ी-सी विचारपूर्वकताके साथ वह देखे तो पाये कि 'अरे, इसका प्राकृतिक प्रवेग तो देखो, इसकी सरल-सहज सत्यप्रियता तो देखो ! इसकी लक्ष्योन्मुखी कातरता ही क्या इसके प्राणोंका सुसूत्र अर्थ नहीं ? अरे, इसका नदीपन ही तो इसके अस्तित्वका नियम है ! यह लहरी-नृत्य भहीं, यह जीवन-मथन है।' जो मुक्त-विचार जीवनकी कीमत देकर पहिचाने जाते हैं उनकी ट्रेजेडी यही है कि उन्हें कोई नहीं पहिचानता। वे अपरिचित, अनएश्यूमिंग रहकर ही सुख पाते हैं । उनकी अपार आर्द्रता, उनका विश्व-वेदनाके साथ हृदयगुन्थन क्वचित् ही मर्मराकुल होता है। अधिकतर वह नीरव रहता है । वे ऊर्ध्वगामी, निरन्तर मूक, आत्माकी व्यथा-गोदसे उठनेवाली, प्रश्न और विस्मय-चिह्नाकित पुकारे हैं। __ और दुनिया जब इस पशोपेशमे ही पड़ी रहती है कि कोई समझे, हम तो नहीं समझते, तभी मेरे जैसा कोई अल्प-कौशल दृश्याकनकार (=Landscape -painter ) उस विचार-नदीके किनारो-किनारोपर पर्यटन करके किसी एक खंडको लेकर प्रयास करने बैठ जाता है कि जिसमें नदीकी पूरी आत्माकी झलक वह अपने छोटेसे चित्र-खंडमें प्रस्तुत कर दे । उसमे वह अपने दृष्टिकोणको शक्यतः विस्तृत और तटस्थ बनाकर नदी और नदीके आकाश-वातासको खींच लानेका प्रयत्न करता है। जैनेन्द्र के इस लेख-संग्रहकी भूमिका लिखते समय मुझे अपनी ओरसे इतनीसी ही कैफियत कहो या विज्ञप्ति, दे देनी है। ऊपर सहजको समझानेका और निरभ्र आकाशकी अपार नीलम गहराईमें रंगच्छटाये खोजनेका किंवा नदीके तरंग-भेदमे परिव्यात एकमेव 'जीवन-भेद' को चीहनेका असाध्य कर्म मैंने किया है। इस प्रथम प्रयासमे मैंने, हो सकता है, गलतियाँ भी की हो। कई भूलें भी
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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