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________________ ૨૦ दीजिए कि हमारे साहित्याकाशमे हिन्दीके भविष्योज्ज्वल सुवर्ण-कालके प्रभात-तारे युतिमान होने लगे हैं । जैनेन्द्र उनमे शुक्र हैं । ये सब उस आनेवाले भाग्योदयके सूचक मंगल-चिह्न हैं। हिन्दी माताके सौभाग्यालंकारको अब हमे समझने और जाननेके लिए अधिक समय लगाना अशान नहीं, पाप माना जायगा । हिन्दी गद्य अब पुरातन परिपाटीकी सीमासे बाहर आकर निखरने लगा है, अपने पैरोपर खडे रहनेका पर्याप्त मौलिक मनोबल उसमे अब आने लगा है और अब उसे आवश्यकता नहीं रही है कि बंगला या अंग्रेजीकी जूठनसे ही संतुष्ट रहे । उसपर युगकी चोट पड़ी है और उसे प्रस्तुत और प्रबुद्ध होकर उस युगको प्रति-चोट देने जितनी क्षमता अपने बाहुओंमे पाना है । हिन्दी लेखक उस क्षमताको विचार सूक्ष्मता, संकल्पकी दृढता, निरर्थकके मोहका परित्याग, भाषाके संबधमे उदारता, आत्म-विश्वास और आत्म-सामर्थ्यद्वारा ही विकसित कर सकता है । जैनेन्द्रमें इनमेसे बहुत-सी चीजोके बीज हैं। और मेरी इस भूमिकासे यह कदापि न समझना होगा कि मेरा कथन जैनेन्द्रपर । आन्तिम वाक्य है । लेनिनने कहा है, ' अन्तिम कुछ नहीं है' और जीवित लेखक चिर-वर्धमान होता है। उसपर जो कुछ हम कहे वह भी qualified अर्थोमे ही लेना चाहिए, क्योकि साहित्यकार और सरित्प्रवाह एकसे है। कुछ स्व-गत नदीका एक नाम है वेगवती । बहना उसके स्वभावमे है । चट्टाने राहमें आवे, पर वह रुकावटपर नहीं रुकती। वह अपने आप अपने ही समग्र जीवनसामर्थ्यके साथ, अपनी दिशा खोज लेती है, उसमें समुद्रके विराट् हृदयके साथ एकीकरण पानेकी तीव्र लगन रहती है। वह अपनी शैल-गुहासे ममताका नाता तोड़कर, पूरी गति और हार्दिकताके साथ सिर्फ बढते जाना ही जानती है । राहमे धूप और छायाकी बुनी जाली उसे डॉकती-खोलती, ककड़-पत्थरके बिछौने और निझर-वधु उसका आमंत्रण करते, कटीली झाडिया उसकी धाराकी बाधा बन आती और वालकी अपार शोषकता उसके सम्मुख विस्तृत उपेक्षा बनकर फैली रती है । तो भी नदी नदी है । नहीं है उसे परवाह इन दुनिया-भरके बन्धनोकी । वह तो निःश्रेयसकी साधिका बनी उसी आकूल महासागरकी ओर बस प्रवहमान, गतिशीला है।
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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