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________________ होता है तभी आदमीमे कट्टर अन्धता (=Dogmay आती है और उसका विकास रुक जाता है। इस तरह, एक परिभाषा बनायें और उससे काम निकालकर सदा दूसरी बनानेको तैयार रहें। यह प्रगतिशील जीवनका लक्षण है और प्रगतिशील, अनुभूतिशील जीवनका लिपिबद्ध व्यक्तीकरण साहित्य है। इसीको यो कहें कि मनुष्यका और मनुष्य-जातिका भाषाबद्ध या अक्षर-व्यक्त ज्ञान साहित्य है। प्राणीमें नव वोधका उदय हुआ तभी उसमे यह अनुभूति भी उत्पन्न हुई कि 'यह मै हूँ' और 'यह शेष सब दुनिया है।' यह दुनिया बहुत बड़ी है, इसका आर-पार नहीं है, और मैं अकेला हूँ। यह अनन्त है, मै सीमित हूँ, क्षुद्र हूँ। सूरज धूप फेकता है जो मुझे जलाती है, हवा मुझे काटती है, पानी मुझे वहा ले जायगा और डुवा देगा, ये जानवर चारों ओर 'खाऊँ खाऊँ' कर रहे है, धरती कैसी कटीली और कठोर है, पर, मैं भी हूँ, और जीना चाहता हूँ। वोधोदयके साथ ही प्राणीने शेष विश्वके प्रति द्वन्दू, द्वित्व और विग्रहकी वृत्ति अपनेमे अनुभव की, इससे टक्कर लेकर मै जीऊँगा, इसको मारकर खा लेंगा, यह अन्न है और मेरा भोज्य है; यह और भी जो कुछ है, मेरे जीवनको पुष्ट करेगा। बोधके साथ एक वृत्ति भी मनुष्यमें जागी । वह थी 'अहंकार'। किन्तु ' अहंकार ' अपनेमें ही टिक नही सकता। अहंकार भी एक सम्बन्ध है जो क्षुद्रने विराटके प्रति स्थापित किया। विराटके अवबोधसे क्षुद्र पिस न जाय, इससे क्षुद्रने कहा, 'ओह, मै 'मैं' हूँ, और यह सब मेरे लिए है।'
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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