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________________ ३४४ जनतत्त्वादर्श . तथा १०. वाद, ११. जल्प, १२. वितंडा-तहां प्रमाण, तर्क, साधन, उपालंभ, सिद्धांत से अविरुद्ध पंचावयव संयुक्त पक्ष प्रतिपक्ष का जो ग्रहण करना, तिस का नाम वाद है । सो वाद तत्त्वज्ञान के वास्ते शिष्य अरु आचार्य का होता है । अरु सोई वाद, जिस को जीतना होवे, तिस के साथ छल, जाति, निग्रहस्थान आदि के द्वारा जो साधनोपालंभ-स्वपक्ष स्थापन और पर पक्ष में दूषणोत्पादन करना जल्प कहलाता है । तथा सो वाद ही प्रतिपक्ष स्थापना से रहित वितंडा है। परन्तु वास्तव में इन तीनों का भेद ही नहीं हो सकता है, क्योंकि तत्त्वचिंता में तत्त्व के निर्णयार्थ वाद करना चाहिये। छल जाति आदिक से तत्त्व का निश्चय ही नहीं होता है। छलादिक जो हैं, सो पर को परास्त करने के वास्ते ही हैं, तिन से तत्त्वनिर्णय की प्राप्ति कदापि नहीं होती। जेकर इन का भेद भी माना जावे, तो भी ये पदार्थ नहीं हो सकते हैं। क्योंकि जो परमार्थ वस्तु है, सोई पदार्थ है । अरु वाद जो है, सो पुरुष की इच्छा के अधीन है, नियतरूप नहीं है। इस वास्ते पदार्थ नहीं। तथा एक और भी बात है, कि बहुत से लोग कुक्कड़, लाल और मींढे, आदि के वाद में भी पक्ष प्रतिपक्ष का ग्रहण करते हैं । तव तो तिनों को भी तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति होनी चाहिये, परन्तु यह तो तुम भी नहीं मानते। इस वास्ते वाद पदार्थ नहीं है। १३. तथा असिद्ध, अनैकांतिक, विरुद्ध, यह तीनों हेत्वा
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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