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________________ ३४५ चतुर्थ परिच्छेद भास हैं । हेतु तो नहीं, परन्तु हेतु की तरें भासमान होते हैं, इस वास्ते इन को हेत्वाभास कहते हैं । जब सम्यक् हेतुओं की ही तत्त्वव्यवस्थिति नहीं, तो हेत्वाभासों का तो कहना ही क्या है ? क्योंकि जो नियत स्वरूप करके रहे, सो वस्तु है। परंतु हेतु तो एक साध्य वस्तु में हेतु है, और दूसरे साध्य में अहेतु है, इस वास्ते नियत स्वरूप वाला नहीं। तथा १४. छल, १५. जाति, १६. निग्रहस्थान, यह तीनों पदार्थ नहीं हैं, क्योंकि यह तीनों ही वास्तव में कपट रूप हैं । जिनों ने इनको तत्त्व रूप से कथन किया है, उन के ज्ञान, वैराग्य का तो कहना ही क्या है ? तव तो इस संसार में जो. चोरी, ठगी, और हाथ फेरी आदि सिखावे, तिस को भी तत्त्वज्ञान का उपदेशक मानना चाहिये । यह नैयायिक मत के सोलां पदार्थों का स्वरूप तथा खण्डन संक्षेप से बतला दिया । जे कर विशेप देखना होवे, तो न्यायकुमुदचन्द्र और सूत्रकृतांग सिद्धांत का वारहवां अध्ययन देख लेना । अथ वैशेषिक मत का खण्डन लिखते हैं । वैशेषिकों के कहे हुये तत्त्व भी तत्त्व नहीं हैं । वैशेषिक मत में छः पदार्थों की १. द्रव्य, २. गुण, ३. कर्म, ४. सामान्य ५. समीक्षा विशेष, ६. समवाय, यह छे तत्त्व माने है। तहां १. पृथिवी, २. अप्, ३. तेज, ४. वायु, ५. आकाश, ६. काल, ७. दिक्, ८. आत्मा, ९. मन, यह नव द्रव्य हैं। परन्तु तिन में पृथिवी, अप, तेज, और वायु, इन
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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