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________________ चतुर्थ परिच्छेद ३२१ विचारो तो सही। इससे अधिक बौद्धमत का खण्डन देखना हो, तो नंदीसिद्धांत, सम्मतितर्क, द्वादशारनयचक्र, अनेकांतजयपताका, स्याद्वादरत्नाकर, स्याद्वादरत्नाकरावतारिका प्रमुख शास्त्रों में देख लेना। अव नैयायिक और वैशेषिक मत में पूर्वापर व्याहतपना दिखलाते हैं । १. पदार्थों में सत्ता के नैयायिक मत मे योग से सत्त्व है, ऐसे कह कर सामान्य, पूर्वापर विरोध विशेष, समवाय, इन पदार्थों को सत्ता के योग विना ही सत् कहते हैं। तो फिर उनका वचन पूर्वापर व्याहत क्यों न होवे ? २. अपने आप में क्रिया का विरोध होने से ज्ञान अपने आप को नहीं जानता, ऐसे कह कर फिर कहते हैं, कि ईश्वर का जो ज्ञान है, सो अपने आप को जानता है । इस प्रकार ईश्वर ज्ञान में स्वात्मविषयक क्रिया का विरोध मानते नहीं हैं, तो फिर क्योंकर स्ववचन का विरोध न हुआ? ३. तथा दीपक जो है, सो अपने आप को आप ही प्रकाश करता है । इस जगह पर स्वात्मविषयक क्रिया का विरोध मानते नहीं, यह पूर्वापर व्याहत वचन है। ४. दूसरों के ठगने वास्ते छल, जाति और निग्रहस्थान आदि का तत्त्वरूप से उपदेश करते हुए अक्षपाद ऋषि का वैराग्य वर्णन ऐसा है, कि जैसा अंधकार को प्रकाश स्वरूप कहना । तब यह क्योंकर पूर्वापर व्याहत वचन नहीं है ?
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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