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________________ ३२० जैनतत्त्वादर्श नहीं होती, " *भूतिर्येषां क्रिया सैव, कारकं सैव चोच्यते" । इस हेतु से ज्ञान क्षणों का उत्पत्ति के अनन्तर न तो गमन है, न अवस्थान है, और न पूर्वापर क्षणों से अनुगम है । इस वास्ते इन का परस्पर स्वरूपावधारण नहीं । अरु ना ही कोई उत्पत्ति के अनन्तर व्यापार है । तब मेरे सन्मुख यह अर्थ साक्षात् प्रतिभासता है, इस प्रकार अर्थ के निश्चयमात्र करने में भी अनेक क्षणों का संभव है, रागद्वेषादि दुख से आकुल सकल जगत् की विचारणा, दीर्घतर काल साध्य शास्त्रानुसंधान तथा अर्थ चिन्तन करना और मोक्ष के वास्ते सम्यक् उपाय में प्रवृत्त होना, इत्यादि बातों का, क्षणिक वाद में कैसे सम्भव हो सकता है ? प्रश्नः -- यह जो सर्व व्यवहार है, सो ज्ञान दणों को सन्तति की अपेक्षा करके है, फिर तुम इस पक्ष में क्यों दूषण देते हो ? उत्तर:- मालूम होता है कि हमारा कहा हुआ तुमारी समझ में नहीं आया है, क्योंकि ज्ञान क्षण संतति के विषय में भी वोही दूषण है, जो हमने ऊपर कहा है । वैकल्पिक, और वैकल्पिक, जो ज्ञान क्षण हैं, वो परस्पर में अनुगम के अभाव से परस्पर स्वरूप को नहीं जानते, तथा क्षणमात्र से अधिक ठरहते नहीं । अतः ज्ञान सन्तति के स्वीकार से भी तुमारा अभीष्ट सिद्ध नहीं हो सकता, प्रांखें मीच करके * इस का अर्थ पृ० २३७ में देखो ।
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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