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________________ ३२२ जैनतत्त्वादर्श ५. आकाश को निरवयव स्वीकार करते हैं । फिर तिस का गुण जो शब्द है, वह उस के एक देश में ही सुनाई देता है, सर्वत्र नहीं । तब तो आकाश को सांशता - सावयवता प्राप्त हो गई । यह भी पूर्वापर विरोध है । *. सत्तायोग से पदार्थ को सत्त्व होता है, अरु योग जो है, सो सर्व वस्तुओं में सांगता होने ही से होता है । परन्तु सामान्य को निरंश अरु एक माना है, तब यह पूर्वापर व्याहत वचन क्यों नहीं ? ७. समवाय को नित्य और एक स्वभाव मान कर उस का सर्व समवायी पदार्थों के साथ नियत सम्बन्ध स्वीकार करना समवाय को अनेक स्वभाव वाला सिद्ध करता है । तब तो पूर्वापर विरोध हो गया । ८. "श्रर्थवत्प्रमाणम्" अर्थ है सहकारी जिस का सो अर्थवत् प्रमाण, यह कह कर फिर योगी प्रत्यक्ष को अतीताद्यर्थ विषयक कहने वाले को अवश्य पूर्वापर विरोध है । क्योंकि प्रतीतादिक जो पदार्थ हैं, सो विनष्ट तथा अनुत्पन्न होने से सहकारी नहीं हो सकते । ८. तथा स्मृति गृहीतग्राही अरु " अनर्थ जन्यत्वेन" विना अर्थ के होने करके प्रमाण नहीं है । जब गृहीतग्राही होने से स्मृति को अप्रमाण माना, तव धारावाही ज्ञान भी गृहीतग्राही होने से अप्रमाण होना चाहिए | परन्तु धारावाही ज्ञान की नैयायिक और वैशेषिक प्रमाण मानते हैं । अरु And
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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