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________________ द्वितीय परिच्छेद : उत्तरपक्षः-हे वल्लभ मिन ! तुमारी समझ मूजब तो जरूर जैसे तुम कहते हो, तैसे ही है; परन्तु शंकर स्वामी के शिष्य आनंदगिरि ने शंकरदिग्विजय के अठावनवें प्रकरण में जो शंकर स्वामो का वृत्तांत लिखा है, उसके पढ़ने से तो ऐसा प्रतीत होता है, कि शंकरस्वामी सर्वज्ञ नहीं थे प्रत्युत कामी, अज्ञानी अरु असमर्थ थे तथा तिस से ऐसा भी प्रतीत होता है कि वेदांतियों का अद्वैतब्रह्मज्ञान, जब ताई यह स्थूल देहं रहेगी, तब ताई रहेगा, परन्तु इस शरीर के छूटने पीछे किसी वेदांती को ब्रह्मज्ञान नहीं रहेगा। • पूर्वपक्षा-वो कौनसा शंकरस्वामी का वृत्तांत है जिस .से तुमारी पूर्वोक्त बातें सिद्ध होती हैं ? उत्तरपक्षः-जो तुमको वृत्तांत सुनना है, तो हमारे क्या अढील है । हम इसी जगे लिख देते हैं:श्री शंकराचार्य और जव शंकरस्वामी ने मंडनमिश्र को जीता, ___सरसवाणी तब मंडनमिश्र ने यतिव्रत ले लिया, अरु मंडनमिश्र की भार्या जिसका नाम “सरसवाणी" था, सो सरसवाणी अपने पति को यतिव्रत लिया देख कर आप ब्रह्मलोक को चली। संरसवाणी को जाती देखकर शंकरस्वामी ने वनदुर्गामंत्र के द्वारा दिग्बंधन किया । तिसके पीछे शंकरस्वामीने हे सरसवाणि ! तूं ब्रह्म शक्ति है, ब्रह्म के अंशभूत मंडनमिश्रकी तूं भार्या है, उपाधि करके सर्वको फलित है। * देरी।
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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