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________________ ११४ जैनतत्त्वादर्श तिस कारण से मेरे साथ *प्रसंग कर के तुमको जाना योग्य है-ऐसे कहा । तब सरसवाणी ने शंकरस्वामी के प्रति कहा कि पति के संन्यासग्रहण से प्रथम ही वैधव्य के भय से मैने पृथिवीको त्यागा है, तिस कारण से फिर मै पृथिवी का स्पर्श न करूंगी । हे यति । तुम तो पृथिवी में स्थित हो । तब तुमारे साथ प्रसंग करने के वास्ते एक विषय-स्थानमें कैसे स्थिति होवे ? तिसपर शंकरस्वामी कहते भये कि हे माता! तो भी भूमि के ऊपर हाथ प्रमाण ऊंची आकाश में तुम रहो और मेरे साथ सर्व वचनप्रपंच का संचार करके, पीछे से जाना । शंकरस्वामी के इस प्रकार कहने से आकाश प्रदेश में ठहरी हुई सरसवाणी ने आदर युक्त होकर शंकरस्वामी के साथ सर्व शास्त्रों वेद, पुराण, इतिहास-आदि के विषे समय प्रसंग करके, पीछे शंकरस्वामीको पराजित करनेके वास्ते जिस में दुःख से प्रवेश हो, ऐसा जो कामशास्त्र, तिस विषे नायिका अरु नायक-इन के भेदविस्तार को शंकरस्वामी से पूछा । तब तो शंकरस्वामी इस विषय को जानते नहीं थे, ताते उत्तर न दे सके, किन्तु मौन-चुप हो गये। तिस पीछे-सरसवाणी ने शंकरस्वामी से कहा कि तुमारे जानने में यह-शास्त्र नहीं आया, तिस शास्त्र को मैंही जानती हूँ। यह सुन, काल-समय के जानकार शंकरस्वामी * वार्तालाप।
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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