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________________ ११२ जैनतत्त्वादर्श होगा। जेकर ब्रह्म ही को उपादान कारण मानोगे, तब तो ब्रह्म ही आप सब कुछ बन गया, तब फिर पूर्वोक्त ही दूषण आया । जेकर माया को चेतन मानोगे, तो भी यही पूर्वोक्त दूषण होगा। जेकर कहोगे कि माया का ब्रह्म से अभेद है तब तो ब्रह्म ही कहना चाहिये, माया नहीं कहनी चाहिये । पूर्वपक्षः-हम तो माया को अनिर्वचनीय मानते हैं। उत्तरपक्षः-इस अनिर्वचनीय पक्ष को ऊपर जैसे खण्डन कर आये हैं, तैसे इहां भी जान लेना। तथा अनिर्वचनीय जो शब्द है तिस में निस जो उपसर्ग है, तिसका अर्थ तो निषेध रूप किया है (कलापक व्याकरण में)। शेष जो शब्द है, सो या तो भाव का वाचक है या अभाव का वाचक है । जब भाव को निषेध करोगे, तब तो अभाव आ जावेगा, अरु जेकर अभाव को निषेधोगे, तब भाव प्रा जावेगा। ए भावाभाव दोनों को वर्ज के तीसरा वस्तु का रूप ही कोई नहीं है । इस वास्ते अनिर्वचनीय जो शब्द है, सो दंभी पुरुषों द्वारा छलरूप रचा हुआ प्रतीत होता है । तथापि इस उक्त कथन से ही द्वैत सिद्ध होता है, अद्वैत नहीं। पूर्वपक्षः-यह जो अद्वैत मत है, इस के मुख्य प्राचार्य शंकर स्वामी हैं जिनों ने सर्वमतों को खण्डन करके अद्वैत मत सिद्ध किया है। शंकर स्वामी साक्षात् शिव का अवतार, सर्वज्ञ, ब्रह्मज्ञानी, शीलवान, और सर्वसामर्थ्ययुक्त थे फिर उनों के अद्वैत मत को खण्डन करने वाला कौन है ?
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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