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________________ द्वितीय परिच्छेद ८५ 1 अर्थ :- हे विबुधाचित ! विबुध-देवताओं करी पूजित ! बुद्ध-सातों सुगतों में से कोई एक सुगत-धर्मबुद्धि प्रगट करने से सो बुद्ध तूंही है । तीनां भुवनों में सुख करने से तूं शंकर है। शं-सुख को जो करे सो शंकर हे धीर ! शिव-मोक्ष तिसका जो मार्ग - ज्ञानदर्शनचारित्ररूप-तिसका विधान करने से तूं धाता विधाता ब्रह्मा है। हे भगवन् ! तूंही व्यक्तप्रगट रूप से पुरुषों में उत्तम है । इत्यादि लाखों श्लोक परमेश्वर की स्तुति के हैं । जेकर जैनी ईश्वर को न मानते तो इन श्लोकों से उन्होंने किसकी स्तुति करी है ? इस कारण से जो कहते हैं कि जैनी लोग ईश्वर को नहीं मानते, वे प्रत्यक्ष मृपावादी हैं । प्रश्नः -- बहुत अच्छा हुआ जो मेरे मनका संशय दूर हुआ । परन्तु एक बात का संशय मेरे मनमें है कि तुमने ईश्वर तो मान्या, परन्तु जगत् का कर्त्ता ईश्वर जैनमत में मान्या है या नहीं ? उत्तर:- हे भव्य ! जगत् का कर्त्ता जो ईश्वर सिद्ध हो जावे तो जैनी क्यों नहीं मानें ? परन्तु जगत् का कर्त्ता ईश्वर किसी प्रमाण से सिद्ध मीमांसा नहीं होता । जगत्कर्तृत्व प्रश्न: - जे कर किसी प्रमाण से ईश्वर जगत् का कर्त्ता सिद्ध नहीं होता तो, नवीनवेदांती, नैयायिक, वैशेषिक, पातंजल, नवीनसांख्य, ईसाई, मुसलमान प्रमुख अनेक
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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