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________________ ही प्राप्त होगी।" स्वर्गीय गाधीजी का भी ऐसा ही मत था । उन्होने कहा था-"यदि स्वराज्य के अन्दर परिग्रही मनुष्यो का प्रवेश होगा, तो अहिसा और सत्य एक क्षण भी नहीं ठहर सकेंगे।" कारण कि मनुष्यो को परिग्रह की रक्षा के हेतु निरन्तर हिसा के लिए तत्पर रहना पडेगा और परिग्रह की रक्षा के लिए मिथ्या नियमो की रचना करनी पडेगी। इसका अर्थ यह होगा कि हिंसा और असत्य के भयकर गर्त में लुढकना पडेगा। एक और स्थान पर उन्होने अकित किया है"मादर्श प्रात्यन्तिक अपरिग्रह तो उसी का होगा, जो मन और कर्म से दिगम्बर हो।" इससे भी बढकर गाधीजी एक स्थान पर कह बैठते है-"केवल सत्य को प्रात्मा की दृष्टि से विचार तो शरीर भी परिग्रह है। भोगेच्या के कारण हमने शरीर का आवरण खना किया है, और उसे टिकाये रखते है ।" इन सब महापुरुषो के कहने का अर्थ यही है कि परिग्रह से मनुष्य को सुख की कभी उपलब्धि नही हो सकती। इसी सबध मे भगवान महावीर स्वामी ने आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व उपदेश दिया था कि, "अपरिग्रहवाद से जनता मे सभाव का सृजन हो सकता है।" श्रीमद्भागवत मे भी अपरिग्रह को अत्यन्त महत्व देते हुए कहा है--"जो-जो मनुष्य को प्रिय लगने वाला परिग्रह है, वह सब दुख का ही कारण है । और जो अकिंचन है, वही सर्वदा सुख का भागी है।" अतएव इन सब महापुरुषो ने अपरिग्रह का ही उपदेश दिया है। उनका यह आदेश राष्ट्रीय, सामाजिक एव वैयक्तिक हितो के दृष्टिकोण से सुन्दर और वाछनीय है। भाधुनिक काल मे अपरिग्रह की प्रत्यधिक आवश्यकता है । मनुष्य अपने जीवन के चरम उद्देश्य-सुख-शाति' को तब ही प्राप्त कर सकता है, जब कि उसकी आवश्यकताये न्यून हो । षट् द्रव्यों के परस्पर सम्बन्ध से लोक-व्यवस्था रूपचन्द गार्गीय जैन पानीपत जिसका अस्तित्व हो वह द्रव्य है। लोक मे अस्तित्व गुणवाले केवल छह ही द्रव्य है। ये अपने गुणो व पर्यायो को लिए हुए परिणमन करते है। ये है--जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश व काल (Soul, matter, medium of motion or medium of keeping order, medium of rest or medium of creating disorder, space, medium of time)। यह लोक जिसमे हम रहते है तथा जिसका हम एक अग है इन्ही छह द्रव्यो से बना है। यह द्रव्यो का ताना-बाना रूप एक महासत्ता का धारी विश्व है। यह एक सचाई है कोई स्वप्न नहीं है। ये छहो द्रव्य एक-दूसरे के परिणमन में सहायक है, निमित्त है। ये स्वय भी परिणमनशील है-कूटस्थ नहीं है, ये अनन्त शक्ति के धारी है तथा अनन्त अपेक्षामो से परिणमन करते है । ये स्वय गुणो द्वारा परिणमन करते है, ये स्वयं अपने कर्ता है तथा कर्म भी है। ये अपने-अपने स्वभाव के कारण नियमित है ४२६]
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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