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________________ तथा नियमो के रचयिता है। इन्ही बहुत से दृष्टिकोणो द्वारा परिणमन करते हुए देखा गया, जाया गया व अनुसन्धान किया गया तो भी इनका कार्य समाप्त नहीं हुआ है और न ही कभी समाप्त होगा। ये विना किसी रुकावट के सदैव क्रियाशील रहेगे। गरज यह लोक एक चलतीफिरती सस्था है और सदैव इसी भांति चलता रहेगा। इसके सम्बन्ध में जितनी भी जानकारी गणित और अनुसन्धान के द्वारा अव तक वैज्ञानिको व ऋषि-महर्पियो ने की है-यह उनसे बहुत बडी है। यह अतीत और वर्तमान से बहुत अधिक है। यह अनादि से चली आयी है और अनन्त काल तक चलती रहेगी। जीवद्रव्य-जिसमे चेतना गुण हो अर्थात् जिसमे मै हूँ ऐसा अनुभव हो तथा स्व पर पदार्थों को जानने की शक्ति हो, जो अत्यन्त सूक्ष्म व अरूपी है तथा इन्द्रियगम्य नहीं है जो वैभाविक दशा अर्थात् ससारी अवस्था में पांचो इन्द्रियो, मन, वचन व काय तीन बल, आयु और श्वासोच्छवास प्राणो से जीता है। जो सुख-दुख का अनुभव करता हो। पुद्गल द्रव्य-जिसमे रूप रस गन्ध व स्पश पाया जाता है तथा जो परमाणु व स्कन्ध अवस्था में पाया जाता है, जो ससारी जीवो के मुख दुख, जीवन-मरण मे निमित्त कारण है तथा उनके शरीर, वचन, मन व श्वासोश्वास का रचयिता है। धर्म द्रव्य-जो जीव तथा पुद्गल को गमन करने मे प्रर्थात् व्यवस्थित रूप से परिणमन करने में सहायक हो । इसे ऋत भी कहते है। अधर्म द्रव्य-जो जीव तथा पुद्गल की स्थिति मे अर्थात इनके व्यवस्थित परिणमन को रोकने में सहायक हो । इसे अन्त भी कहते है। आकाग द्रव्य-जो अन्य द्रव्यो को ठहरने के लिए स्थान देता है। काल द्रव्य-जो द्रव्यो के परिणमन व क्रिया मे निमित्त कारण है, जो स्वय विना किसी निमित्त के वर्तता है । जिसकी पर्याय स्वरूप समय, घड़ी, घण्टा, दिन, मास, वर्ष वनते हैइनके कारण स्वरूप जीव पुद्गल की पर्यायो की स्थिति मे कमी-बैशी का ज्ञान होता है। यद्यपि धर्म, अधर्म, आकाश ब काल ये चारो द्रव्य प्रत्यक्ष मे दिखाई नहीं देते परन्तु लोक मे अपने-अपने कार्यों द्वारा सिद्ध होते हैं। ये सभी द्रव्य नियमित स्वभाव रूप से नियत है तथा विभाव रूप क्षणवर्ती परिणमन के कारण अनियत है। ये ध्रुव सत रूप रहने के कारण नित्य है तथा समय-समय पर्यायो के उत्पाद व व्यय के कारण अनित्य है। अभेद दृष्टि से सम्पूर्ण लोकालोक रूप महासत्ता के धारी होने से एक है तथा अनन्तानत भेद कल्पना से अनेक है। कभी नाग न होने के कारण अस्तित्व गुण वाले है। अर्थ-क्रिया धारी होने से वस्तुत्व गुण वाले है। [४२७
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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