SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 427
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कि हम केवल धर्म का अथवा धर्मज्ञता का निषेध करते है । यदि कोई पुरुष धर्मातिरिक्त अन्य सबको जानता है तो जाने, हमे उसमे कोई विरोध नही है । यथा - घर्मज्ञत्व-निपेधस्तु केवलोऽत्रोपयुज्यते । सर्वमन्यद्विजानस्तु पुरुप केन वार्यते ॥ सर्व प्रमातृ - सवन्वि प्रत्यक्षादितिवारणात् । केवलागम-गम्यत्व लप्स्यते पुण्यपापयो ||" किसी पुरुप को धर्मज्ञ न मानने मे कुमारिल का तर्क यह है कि पुरुषो का अनुभव परस्पर विरुद्ध एव वाघित देखा जाता है । अत वे उसके द्वारा धर्माधर्म का यथार्थं साक्षात्कार मे नही कर सकते । वेद नित्य, अपौरुषेय और त्रिकालाबाधित होने से उसका ही धर्माधर्म के मामले प्रवेश है ( 'धर्मे चोदनैव प्रमाणम्') । ध्यान रहे कि वौद्धदर्शन में बुद्ध के अनुभव - योगिज्ञान को जैनदर्शन मे अर्हतु के अनुभव — केवल ज्ञान - को धर्माधर्म का यथार्थ साक्षात्कारी वतलाया गया है । जान पडता है कि कुमारिल को इन दोनो की धर्मज्ञता का निषेध करना इष्ट है। उन्हे त्रयीविद् मन्वादि का धर्माधर्मादिविषयक उपदेश तो मान्य है, क्योकि वे उसे वेदप्रभव बतलाते है । कुछ भी हो, वे किसी पुरुष को स्वयं सर्वत्र स्वीकार नही करते । मन्वादि को भी वेद द्वारा ही धर्माधर्मादि का ज्ञाता श्रोर उपदेष्टा मानते हैं । बौद्ध दर्शन में सर्वज्ञता की सम्भावना वौद्धदर्शन मे अविद्या और तृष्णा के क्षय से प्राप्त योगी के परम प्रकर्षजन्य अनुभव पर बल दिया गया है और उसे समस्त पदार्थों का, जिनमे धर्माधर्मादि अतीन्द्रिय पदार्थ भी सम्मिलित हैं, साक्षात्कर्ता कहा गया है । दिग्नाग यादि वौद्ध-चिन्तको ने सूक्ष्मादि पदार्थों के साक्षात्करण रूप १ इन दो कारिकाओं में पहली कारिका को वौद्ध विद्वान् शान्तरक्षित ने तत्त्व सग्रह (का० ३१२८ ) मे और दूसरी तथा पहली दोनो कारिकाओ को अनन्तवीर्य ने बृहत्सर्वज्ञसिद्धि ( पृ० १३९ ) ने उद्धृत किया गया है । २. सुगतो यदि सर्वज्ञ कपिलोनेति का प्रभा । तावुभौ यदि सर्वज्ञौ मतभेद कथ तयो || -- विद्यानन्द, भ्रष्ट स०, पृ० ३ पर उद्धृत ३. उपदेशो हि बुद्धादेवंर्माधर्मादिगोचर । श्रन्यथा चोपपद्यत सर्वज्ञो यदि नाभवत् ॥ बुद्धादयो वेदज्ञास्तेषा वेदादसभव । उपदेश कृतोऽतस्तर्व्यामोहादेव केवलात् ॥ येsपि मन्वादय सिद्धा प्राधान्येन त्रयीविदाम् । त्रयीविदागिन्यास्ते वेदप्रभवोस्तय || नर कोऽप्यस्ति सर्वज्ञ स च सर्वज्ञ इत्यपि । साधन यत्प्रयुज्येत प्रतिज्ञामात्रमेव तत् ॥ [शे अगले पृष्ठ पर ] [ ३९१
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy