SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 426
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पदार्थ का स्वीकार उचित नही है । स्मरण रहे कि चार्वाक प्रत्यक्ष प्रमाण के अलावा अनुमानादि कोई प्रमाण नही मानते। इसलिए इस दर्शन में अतीन्द्रिय सर्वज्ञ की सम्भावना नही है। मीमांसक दर्शन का मन्तव्य : मीमासको का मन्तव्य है कि धर्म, अधर्म, स्वर्ग, देवता, नरक, नारकी भादि श्रतीन्द्रिय " पदार्थ तो हैं, पर उनका ज्ञान वेद द्वारा ही सम्भव है, किसी पुरुष के द्वारा नही । पुरुष रागादिदोषो से युक्त है और रागादि दोष पुरुष मात्र का स्वभाव है तथा वे किसी भी पुरुष से सर्वथा दूर नही हो सकते। ऐसी हालत मे, रागी-द्वेषी प्रज्ञानी पुरुषो के द्वारा उन धर्मादि अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान सम्भव नही है । शावर स्वामी अपने शावर भाष्य (१-१-५ ) मे लिखते है : T 'चोदना हि भूत भवन्त भविष्यन्त सूक्ष्म व्यवहित विप्रकृष्टमित्येवजातीयकमर्थमवगमयितुमल, नान्यत् किञ्चनेन्द्रियम् ।' इससे विदित है कि मीमासकदर्शन सूक्ष्मादि अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान चोदना (वेद) द्वारा स्वीकार करता है, किसी इन्द्रिय के द्वारा उनका ज्ञान सम्भव नही मानता । शधरस्वामी परवर्ती प्रकाण्ड विद्वान भट्ट कुमारिल भी किसी पुरुप मे सर्वज्ञता की सम्भावना का अपने मीमासा - श्लोकवार्तिक मे विस्तार के साथ पुरजोर खण्डन करते है ।' पर वे इतना स्वीकार कर लेते है कि ३६० १. यज्जातीय प्रमाणस्तु यज्जातीयार्थदर्शनम् । दृष्ट सम्प्रति लोकस्य तथा कालान्तरेऽप्यभूत् ॥ यत्राप्यतिशयो दृष्ट स स्वार्थानतिलघनात् । दूरसूक्ष्मादिदृष्टी स्यान्न रूपे श्रोत्रवृत्तिता ।। येsपि सातिशया दृष्टा प्रज्ञा- मेघादिभिनंरा । स्तोकस्तोकान्तरत्वेन त्वतीन्द्रियदर्शनात् ॥ प्राज्ञोऽपि हि नर सूक्ष्मानर्थान् द्रष्टु क्षमोऽपि सन् । स्नजातीरनतिक्रमान्नतिशेते परान्नरान् ॥ एकशास्त्र विचारे तु दृश्यतेऽतिशयो महान् । न तु शास्त्रान्तर ज्ञान तन्मात्रेणैव लभ्यते ॥ ज्ञात्वा व्याकरण दूर बुद्धि शब्दापशब्दयो । प्रकृष्यति न नक्षत्र - तिथि-ग्रहणनिर्णये ॥ ज्योतिविच्च प्रकृष्टोऽपि चन्द्रार्क-प्रहरणादिपु । न भवत्यादिशब्दाना साधुत्वं ज्ञातुमर्हति ॥ दशहस्तान्तरे व्याम्नि यो नामोत्प्लुत्य गच्छति । न योजनमसौ गन्तु शक्तोऽम्यास शतैरपि ॥ तस्मादतिशयज्ञानैरति दूर गतैरपि । न किञ्चिदेवाधिक ज्ञातु न त्वतीन्द्रियम् ॥ - अनन्तकीर्ति द्वारा बृहत्सर्वज्ञसिद्धि में उद्धत
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy