SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 419
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ फलत अणुबम जैसे सर्वमहारक शस्त्र का आविष्कार करता है । केवल भारतवर्ष ही एक ऐसा देश है कि जहां अनादि काल से आध्यात्मिक धारा प्रजम गति के प्रवाहित होती आ रही है। और समय-समय पर देश के महापुरुपो, ऋपियों ने इसे और भी निर्मल तथा सचेत बनाया और इस धारा का पीयूष सम जल पीकर अनेक मानव सन्तुष्ट हुए । अव योरोप भी भारत की ओर आशा की दृष्टि लगाये देख रहा है क्योकि उसे इस देश की अहिंसा-मूर्ति महात्मा गाधी की आत्मिक शान्ति का आभास मिल चुका है। वह समझ गया कि अहिंसा की कितनी बडी भक्ति है जिसके द्वारा भारतवासी अग्रेजो के शक्तिशाली साम्राज्य से विना शस्त्रो को लिए भी ममर्प तथा सफल हुए। उन्होने बडी सफलतापूर्वक अपनी चिरमिलपित स्वतन्त्रता प्राप्त की। वे समझने लगे है कि भारत ही अपने आध्यात्मिक ज्ञान के द्वारा विश्व-कल्याण कर सकता है और आत्मानुभव से ही प्रखण्ड शान्ति प्राप्त हो सकती है । 'यह मेरा है' वह व्यक्ति या देश मेरा नहीं है, इस भेद-भाव के कारण प्राणी अन्य प्राणियों के विनाग मे उद्यत होता है। इस भेदभाव से अधिक और कोई बुरी वात हो ही नहीं सकती। दूसरे के दु.ख को अपना मानकर दुःख अनुभव कर उसके दुख निवारण मे ही सहयोग देना मानवता है। पराया कोई है ही नहीं, सभी अपने ही है ऐसा भाव जहाँ आरा कि किसी को कष्ट पहुचाने की प्रवृत्ति फिर हो ही नहीं सकेगी फिर पराया कष्ट अपना ही करट प्रतीत होने लगेगा। भारत एक आध्यात्मिक विद्याप्रधान देश है । इस देश में बडे-बड़े आध्यात्मवादियों ने जन्म ग्रहण किया है। उनमे प्राय ढाई हजार वर्ष पूर्व भगवान् महावीर और वुद्ध अवतीर्ण हुए थे। अहिंसा उनका प्रधान सदेश था। महात्मा गांधी की 'अहिंसा' व विश्व-प्रेम, भारत के लिए कोई नवीन वस्तुए नहीं थी, सिर्फ उसकी अपार शक्ति को हम भूल-से गये थे । इन्ही अहिंसा, सत्य आदि को भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध ने अपने पवित्र उपदेशो द्वारा भारत के कोने-कोने मे प्रचलित किया था । भगवान् महावीर ने ही 'अहिंसा' यानी 'विश्व-प्रेम' का इतना सुन्दर और सूक्ष्म विवेचन किया है कि जिसकी मिसाल मिल सकती । उनका कथन था , " मनुष्य को अपनी मात्मा को पहिचानना चाहिये, मैं स्वय शुद्ध हू, बुद्ध हू, चैतन्य हू, सर्वशक्ति सम्पन्न एव वांछारहित हू, मुझे किसी भी भौतिक पदार्थ मे भासक्ति नहीं रखनी चाहिए, उनसे मेरा कोई चिरस्थायी सवध नहीं। अगर मानव इ7 उपदेश को ग्रहण करे, तो उसमें अनावश्यक वस्तुओं के सग्रह की वृत्ति (परिग्रह) ही न रहेगी। उसमे मूळ व तीन प्रारम्भ वैमनस्य, और कलह न रहेगा । जव यह सब नहीं रहेगे तो फिर जन-समुदाय से प्रशान्ति का काम ही क्या है ? सर्वत्र शान्ति छा जायेगी और विश्व मे फिर अशाति के वादल और युद्ध की भयकर आशका छा रही है वह न रहेगी । सर्वत्र मानव महान सुखी दिखाई पडेगा। उपयुक्त विवेचना से विश्व शान्ति के निम्नलिखित कारण सिद्ध हुए - १ आत्म-वोध-चेष्टा और भौतिक वस्तुओ मे विराग अर्थात् आत्म-ज्ञान । २ अनावश्यक अन्न वस्त्रादि का सग्रह नहीं करना अर्थात् अपरिग्रह । ३. 'आत्मवर सर्वभूतेषु य पश्यति म पण्डित' अपनी आत्मा के समान विश्व के प्राणियो को समझना । अर्थात् 'अहिंसा-प्रात्मीयता का विस्तार'। [३३
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy