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________________ 'मिथ्यात्व कहते है, क्या है ? यही कि जो वस्तु हमारी नही है उसे अपनी मान लेना और जो वस्तु अपनी है उसे अपनी न समझकर छोड देना या उसके प्रति उदासीन रहना। उदाहरणार्थ जड़ पदार्थ जैसे वस्त्र, मकान, धन इत्यादि नष्ट न होने वाली चीजो को अपनी न समझकर प्राप्ति व रक्षा का सर्वदा इच्छुक रहना और चेतनामयी आत्मा जो इनकी सच्ची सम्पत्ति है उसे भुला डालना सच्चे दुखो का जन्म इन्ही क्षणभगुर वस्तुओ की प्राप्ति में लगे रहने से ही होता है। दृश्यमान सारे पदार्थ पौद्गलिक है, जड है। आत्मा तो हमे दिखाई देती ही नही, प्रत, शरीर ही हमने सब कुछ मान लिया है । उसी को सुखी रखने के लिए धन-सम्पत्ति इत्यादि को येन-केन-प्रकारेण जुटाने मे सलग्न रहते हैं। इस तरह हम वस्तुओ की प्राप्ति की तृष्णा मे ही जीवन-यापन करते हुए अपनी वस्तु अर्थात् प्रात्म-भाव प्रात्मानुभव से पराङ्मुख हो रहे है, यही अशान्ति का सबसे प्रधान, मूल और प्रथम कारण है। जब पदार्थ सीमित है और मानव की इच्छाएँ अनन्त है । अतः ज्योही एक वस्तु की प्राप्ति हुई कि दूसरी वस्तु को ग्रहण करने की इच्छा जागृत हो उठती है। इस तरह तृष्णा बढती चली जाती है और उत्तरोत्तर अधिक सग्रह की कामना मन मे उद्वेलित हो उठती है जिससे हम व्यग्न व प्रशान्त हो जाते है । इसी प्रकार अन्यान्य व्यक्ति भी संग्रह की इच्छा करते है और प्रतिस्पर्धा बढ जाती है । अशान्ति की चिनगारियां छूटने लगती है । व्यक्तित्व देश की अशान्ति रूप ज्वाला धधक उठती है कि वह सारे विश्व मे फैल जाती है और एक विश्वव्यापी युद्ध का अग्निकुण्ड प्रज्वलित हो उठता है जिससे सारे विश्व का साहित्य, जनसमूह, सम्पत्ति जलकर राख हो जाती है । यही दुनिया की अशान्ति की राम-कहानी है। इसके लिए समय-समय पर विभिन्न देशो मे उत्पन्न हुए महापुरुष यही उपदेश दिया करते है कि 'अपने को पहचानो, पराये को पहचानो' फिर अपने स्वरूप मे "रहो, और अपनी आवश्यकतानो को सीमित करो, तृष्णा नहीं रहेगी तो सग्रह अति सीमित होगा जिससे वस्तुमो की कमी न रहेगी। प्रत वे आवश्यकतानुसार मभी को सुलभ हो सकेगी। फिर यह जन-समुदाय शान्त और सतुष्ट रहेगा। किसी भी वस्तु की कमी न रहेगी । जन-समुदाय भौतिक वस्तुप्रो की प्राप्ति सुलभ होने पर उन पर कम प्रासक्त होगा और आत्मज्ञान की ओर मुकेगा। मानव ज्यो-ज्यो अपने आत्म-स्वरूप को समझने का प्रयत्न करेगा, त्यो-त्यो वह समझता जायगा कि भौतिक वस्तुए जिनके लिए वह मारा-मारा फिर रहा है, जल्द नष्ट होने वाली है, पर उसमे मोह रखना मूर्खता है। इन विचारो वाला आवश्यकता से अधिक सग्रह (परिग्रह) न करेगा और अन्त में उसे मात्मा ही ग्रहण करने योग्य है-यह स्पष्ट मालूम हो जाएगा। इस तरह एक दिन वह भली-भाति समझ लेगा कि प्रात्मा मे मग्न रहना ही सच्ची शान्ति है। यदि इस प्रकार विश्व का प्रत्येक प्राणी समझले तो फिर विश्व की अशान्ति का कोई कारण ही नहीं रहेगा। परिग्रह सग्रह और ममत्व बुद्धि ही प्रशान्ति का दूसरा कारण है। माजका विश्व भौतिक विज्ञान की तरफ प्रॉख मू दकर वढता चला जा रहा है। योरोप की बाते छोडिये । पर वह तो भौतिक विज्ञान के अतिरिक्त प्राध्यात्मिक विज्ञान को जानता तक नहीं । सब भौतिक विज्ञान के अधिकाधिक विकास मे ही मनुष्यो को पराकाष्ठा मानता है। ३५२ ]
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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