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________________ ४. विचार सघर्प मे समन्वय का उपाय-अनेकान्त । आज मनुष्य का एक दम ह्रास हो चुका व हो रहा प्रतीत होता है। पारस्परिक प्रेम और मंत्रीभाव की कमी परिलक्षित हो रही है। पुराने व्यक्ति आज भी मिलते है तो आत्मीयता का अनुपम दर्शन होता है, वे खिल जाते है, हरे भरे हो जाते है। चेहरे पर उनके प्रसन्नता, प्रफुल्लता के भाव दृष्टिगोचर होने लगते है, पर आज के नवयुवको के पाम बनावटी दिग्वावै की मैत्री व प्रेम के सिवाय कुछ है ही नहीं। वाहर के मुहावने, चिकनी-चुपड़ी वातें, भीतर से धोखापन अनुभव होता है। इसलिए परदुःख-कातर विरले व्यक्ति ही मिलते हैं। अपना स्वार्थ ही प्रधान होता है। एक-दूसरे के लगाव से ही स्वार्थ टकराते है और प्रशान्ति वढती है । आत्मीयता के प्रभाव मे ही यह महान् दुख हट सकता है। हमारा प्राचीन भारतीय आदर्ग तो यही रहा है - अय निज परोवेत्ति, गणना हि लघुचेत्तसाम् । उदार चरिताना तु 'वसुधैव कुटुम्बकम्' । इस आदर्श को पुन प्रतिष्ठापित करना है। 1 x x x x जयपुर का हिन्दी जैन-साहित्य और साहित्यकार श्री गंगारामजी गर्ग, एम०ए० ___ रिसर्च स्कालर, जयपुर श्री गगारामजी गर्ग एम० ए० रिसर्च स्कालर ऐसे उदीयमान अजैन वन्धु है जिन्हें जैनधर्म से अत्यन्त प्रीति है। उन्होने जैन विषयो पर अनेक स्वतन्त्र गवेषणात्मक लेख लिखे हैं। 'जयपुर के जन विद्वानो की हिन्दी सेवा इस विषय पर आपका सारगर्भित खोजपूर्ण निवन्ध । सक्षिप्त और मौलिक ढग से लिखा गया है। इस लेख को पढकर आप भली प्रकार जान सकेंगे कि जयपुर मे जैन विद्वानो ने किस प्रकार हिन्दी साहित्य की सेवा की। आपके लेख पठनीय और ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं ।" जयपुर चिरकाल से जैन सस्कृति और साहित्य का केन्द्र रहा है । यहाँ विमलदास, कृपाराम, वालचन्द, वरवतराम आदि कई जैन धर्मावलम्बी प्रमुख राज्य-पदो पर आसीन होते रहे, अनेक श्रेष्ठि-जन मुन्दर जिन-चैत्यालयो का निर्माण करवाते रहे जिससे यहां की भूमि में जैन धर्मवल्लरी पर्याप्त पुष्पित भौर पल्लवित हुई। जैन धर्म के व्यापक प्रचार ने जैन साहित्य को भी बड़ी गति दी । मनुष्यो ने जैन धर्म व साहित्य का अध्ययन किया । शास्त्रो के अध्ययन ने क्लिष्ट व दुरूह अन्थो के अनुवाद तथा तन्निहित गूढ दार्शनिक तत्वो के विवेचन की प्रेरणा उनको दी एव भाव-भरी अपभ्रश रचनायो के पारायण ने उनमे कवि-बुद्धि जागृत की, अतः जयपुर में विपुल साहित्यिक रचनाओं का निर्माण हुआ। जयपुर के समग्र जैन साहित्य का अध्ययन कर लेने पर हमको उसमे निम्नलिखित विशेषताएं मिलती हैं - ३८४
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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