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________________ लोग सस्कारी न हो तो उनके पास फूटी कौडी भी नही मिलती। जहां सस्कार अच्छे होते है, वही स्मरण शक्ति और शास्त्रज्ञान का सम्बन्ध शोभित होता है, और जगत को शोभित करता है। कवि सस्कारी ज्ञानी थे । वैराग्य अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवेगे, क्यारे थईशु बाह्यान्तर निग्रंथ जो, सर्व सबधनु वधन तीक्ष्ण छेदीने, विचरणु कब महत्पुरुप ने पथ जी ? सर्वभाव प्रौदासीन्य वृत्तिकरी, मात्र देहे ते सयमहेतु होय जो, अन्य कारणे अन्य कy कल्पे नहि, देहे पण किचित् मूर्छा नवजोय जो ॥ अपूर्व रामचन्द भाई की १८ वर्ष की उमर के निकले हुए अपूर्व उद्गारो की ये पहली दो कडिया है । जो वैराग्य इन कडियो में छलक रहा है, वह मैंने उनके दो वर्ष के गाढ परिचय से प्रत्येक क्षण मे उनमे देखा है। उनके लेखो की एक प्रसाधारणता यह है कि उन्होने स्वय जो धनुभव किया वही लिखा है । उसमे कही भी कृत्रिमता नहीं। दूसरे के ऊपर छाप डालने के लिए उन्होने एक लाइन भी लिखी हो यह मैंने नही देखा। उनके पास हमेशा कोई-न-कोई धर्मपुस्तक और एक फोरी कापी पडी ही रहती थी । इस कापी मे वे अपने मन मे जो विचार आते उन्हें लिख लेते थे । ये विचार कमी गद्य मे और कभी पद्य में होते थे इसी तरह 'अपूर्व अवसर' आदि पद भी लिखा हुआ होना चाहिए । खाते, बैठते, सोते और प्रत्येक क्रिया करते हुए उनमे वैराग्य तो होता ही था । किसी समय उन्हे इस जगत के किसी भी वैभव पर मोह हुआ हो यह मैंने नही देखा । उनका रहन-सहन में प्रादरपूर्वक परन्तु सूक्ष्मता से देखता था। भोजन मे जो मिले बे उसीसे सतुष्ट रहते थे । उनकी पोशाक सादी थी । कुर्ता, अगरखा, खेस, सिल्क का दुपट्टा और और धोती यही उनकी पोशाक थी तथा ये भी कुछ बहुत साफ या इस्तरी किए हुए रहते हो, यह मुझे याद नही । जमीन पर बैठना और कुर्सी पर बैठना उन्हें दोनो ही समान थे । सामान्य रीति से अपनी दुकान में वे गद्दी पर बैठते थे । उनकी चाल धीमी थी, और देखनेवाला समझ सकता था कि चलते हुए भी वे अपने विचार मे मग्न हैं । प्राख मे उनकी चमत्कार था । वे अत्यन्त तेजस्वी थे । विह्वलता जरा भी न थी । आँख मे एकाग्रता चित्रित थी । चेहरा गोलाकार, होठ पतले, नाक न नोकदार और न चपटी, शरीर दुर्बल, कद मध्यम, वर्ण श्याम, और देखने मे वे शान्तिमूर्ति थे। उनके कठ मे इतना अधिक माधुर्य था कि उन्हें सुनने वाले थकते न थे, उनका चेहरा हसमुख और प्रफुल्लित था । उसके ऊपर अतरानद की छाया थी । भाषा उनकी इतनी परिपूर्ण थी कि उन्हे अपने विचार प्रगट करते समय कभी कोई शब्द ढूढना पडा हो, यह मुझे याद नही । पत्र लिखने बैठते तो शायद ही शब्द बदलते हुए मैंने उन्हें देखा होगा | फिर भी पढने वाले को यह मालूम न होता था कि कही विचार अपूर्ण है अथवा वाक्यरचना त्रुटित है, अथवा शब्दो के चुनाव में कमी है । [ ३३३
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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