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________________ ।। । यह वर्णन सयमी के विषय में सभव है । बाह्याडम्बर से मनुष्य वीतरागी नही हो सकता । वीतरागता मारमा की प्रसादी है । यह अनेक जन्मो के प्रयत्न से मिल सकती है, ऐसा हर मनुष्य अनुभव कर सकता है । रागो को निकालने का प्रयत्न करने वाला जानता है कि रागरहित होना कितना कठिन है। यह गग-रहित दशा कवि की स्वाभाविक थी, ऐसी मेरे ऊपर छाप पडी थी। मोक्ष की प्रथम पीढी वीतरागता है । जब तक जगत की एक भी वस्तु मे मन रमा है तब तक मोक्ष की बात कैसे अच्छी लग सकती है । अथवा अच्छी लगती भी तो केवल कानो को ही-ठीक वैसे ही जैसे कि हमे अर्थ के समझे बिना किसी सगीत का केवल स्वर ही अच्छा लगता है। ऐसी केवल कर्ण-प्रिय क्रीड़ा में से मोक्ष का अनुसरण करने वाले आचरण के पाने में बहुत समय बीत जाता है । आतर वैराग्य के बिना मोक्ष की लगन नही होती। ऐसे वैराग्य की लगन कवि में थी। व्यापारी जीवन • "वणिक तेहतु नाम जेह जूळू नव बोले, वणिक तेहनु नाम, तोल मोछु नव तोले । वणिक तेहनु नाम बापे बोल्यु ते पाले, वणिक तेहनु नाम व्याज सहित धनवाले । ., विवेक तोल ए वणिकनु सुलतान तोल ए शाव छे, बेपार चुके जो वाणीमो, दुख दावानल थाह छ।" -सामलभट्ट सामान्य मान्यता ऐसी है कि व्यवहार अथवा व्यापार और परमार्थ अथवा धर्म ये दोनो अलग-अलग विरोधी वस्तुए है । व्यापार मे धर्म को घुसेड़ना पागलपन है। ऐसा करने से दोनो बिगड जाते है । यह मान्यता यदि मिथ्या न हो तो अपने भाग्य में केवल निराशा ही लिखी है। -क्योकि ऐसी एक भी वस्तु नहीं, ऐसा एक भी व्यवहार नही जिससे हम धर्म को अलग रख सकें। • धार्मिक मनुष्य का धर्म उसके प्रत्येक कार्य मे झलकना ही चाहिये, यह रायचन्द भाई ने अपने जीवन मे बताया था। धर्म कुछ एकादशी के दिन ही, पyषण मे ही, ईद के दिन ही, या , रविवार के दिन ही पालना चाहिए, अथवा उसका पालन मदिरो मे, देरासरो में, और मस्जिदो मे ही होता है और दूकान या दरबार मे नही होता, ऐसा कोई नियम नही। इतना ही नहीं, .परन्तु यह कहना धर्म को न समझने के बराबर है, यह रायचन्द भाई कहते, मानते और अपने आधार में बताते थे। बनिया उसे कहते हैं जो कभी झूठ नही बोलता, बनिया उसे कहते है जो कम नही • तौलता। बनिया उसका नाम है जो अपने पिता का वचन निभाता है, बनिया उसका नाम है जो ब्याज सहिय मूलधन चुकाता है । बनिये की तौल विवेक है, साहू सुलतान की तौल का होता है। यदि बनिया अपने बनिष को चूक माय तो ससार की वित्ति बढ जाय । --अनुवादक ३३४ ]
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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