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________________ ऊपर मुझे कुछ भी श्रद्धा थी, उनके पत्रव्यवहार किया । उनमे रायचद भाई मुख्य थे। उनके साथ तो मेरा अच्छा सम्बन्ध हो चुका था। उनके प्रति मान भी था, इसलिए उनसे जो मिल सके उसे लेने का मैने विचार किया । उसका फल यह हुआ कि मुझे शाति मिली । हिन्दू धर्म में मुझे जो चाहिए वह मिल सकता है, ऐसा मन को विश्वास हुआ । मेरी इस स्थिति के जवाबदार रायचन्द भाई हुए, इससे मेरा उनके प्रति कितना अधिक मान होना चाहिए, इसका पाठक लोग कुछ अनुमान कर सकते है। इतना होने पर भी मैने उन्हे धर्मगुरु नही माना । धर्मगुरु की तो मैं खोज किया ही करता हूं, और अबतक मुझे सबके विपय में यही जवाब मिला है कि 'ये नही ।' ऐसा सम्पूर्ण गुरू प्राप्त करने के लिए तो अधिकार चाहिए, वह मैं कहाँ से लाऊ ? प्रथम भेंट रायचन्द भाई के साथ मेरी भेट जोलाई सन् १८९१ मे उस दिन रुई जब मैं विलायत से बम्बई वापस आया । इन दिनो समुद्र में तूफान आया करता है, इस कारण जहाज रात को देरी से पहुंचा । मैं डाक्टर-बैरिस्टर-और अब रगून के प्रख्यात झवेरी प्राणजीवनदास मेहता के घर उतरा था। रायचन्द भाई उनके बड़े भाई के जमाई होते थे। डाक्टर साहब ने ही परिचय कराया। उनके दूसरे बडे भाई झवेरी रेवाशकर जगजीवनदाम की पहिचान भी उसी दिन हुई। डाक्टर साहब ने रायचन्द भाई को 'कवि' कहकर परिचय कराया और कहा-'कवि होते हुए भी आप हमारे साथ व्यापार मे है, आप ज्ञानी और शतावधानी हैं। किसी ने सूचना दी कि मै उन्हे कुछ शब्द सुनाऊ, और वे शब्द चाहे किसी भी भाषा के हो, जिस क्रम से मै बोलू गा उसी क्रम से वे दुहरा जावेगे । मुझे यह सुनकर आश्चर्य हुमा । मै तो उस समय जवान और विलायत से लौटा था, मुझे भाषाज्ञान का भी अभिमान था। मुझे विलायत की हवा भी कुछ कम न लगी थी। उन दिनो विलायत से पाया मानो आकाश से उतरा। मैने अपना समस्त ज्ञान उलट दिया, और अलग-अलग भाषाओ के शब्द पहले मैंने लिख लिए---क्योकि मुझे वह क्रम कहाँ याद रहने वाला था और बाद में उन शब्दो को मैं बाच गया। उसी क्रम से रायवन्द भाई ने धीरे से एक के बाद एक शब्द कह सुनाए । मैं राजी हुआ, चकित हुआ और कवि की स्मरण-शक्ति के विषय मे मेरा उच्च विचार हुआ । विलायत की हवा कम पड़ने के लिए यह सुन्दर अनुभव हुआ कहा जा सकता है। कवि को अग्रेजी का ज्ञान बिल्कुल न था । उस समय उनकी उमर पच्चीस से अधिक न थी । गुजराती पाठशाला में भी उन्होने थोडा ही अभ्यास किया था। फिर भी इतनी शक्ति, इतना ज्ञान और आस-पास से इतना उनका मान । इससे मैं मोहित हुआ । स्मरणशक्ति पाठशाला में नहीं बिकती, और ज्ञान भी पाठशाला के बाहर, यदि इच्छा हो जिज्ञासा हो-तो मिलता है, तथा मान पाने के लिए विलायत अथवा कही भी नहीं जाना पडता; परन्तु गुण को मान चाहिए तो मिलता है-यह पदार्थ-पाठ मुझे बम्बई उतरते ही मिला । कवि के साथ यह परिचय बहुल भागे वढा । स्मरण शक्ति बहुत लोगो की तीन होती है, इसमे आचार्य की कुछ बात नहीं । शास्त्र-ज्ञान भी बहुतो में पाया जाता है। परन्तु यदि वे ३३२ ]
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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