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________________ जिनके पवित्र सस्मरण लिखना प्रारम्भ करता हू, उन स्वर्गीय श्रीमद् रायचन्द की माज जन्म तिथि है | कार्तिक पूर्णिमा ( सवत् १९२४) को उनका जन्म हुआ था । मै कुछ यहा श्रीमद् रायचंद का जीवनचरित्र नही लिख रहा हू । यह कार्य मेरी शक्ति के बाहर है। मेरे पास सामग्री भी नही । उनका यदि मुझे जीवनचरित्र लिखना हो तो मुझे चाहिए कि मै उनकी जन्मभूमि ववाणी प्राबदर मे कुछ समय बिताऊ, उनके रहने का मकान देखू, उनके खेलने-कूदने के स्थान देखू, उनके बाल - मित्रो से मिलू, उनकी पाठशाला मे जाऊ, उनके मित्रो, अनुयायियो और सगे-संबंधियो से मिलू, और उनसे जानने योग्य बातें जानकर ही फिर कही लिखना प्रारम्भ करू । परन्तु इनमे से मुझे किसी भी बात का परिचय नहीं । इतना ही नही, मुझे लिखने की अपनी शक्ति और योग्यता के विषयों में भी शंका है। मुझे याद है मैने कई बार ये विचार प्रकट किए है कि अवकाश मिलने पर उनके सस्मरण लिखू गा । एक शिष्य ने जिनके लिए मुझे बहुत मान है, ये विचार सुने और मुख्यरूप से यहाँ उन्ही के सन्तोष के लिए यह लिखा है । श्रीमद् रायचन्द को मैं 'रायचन्द भाई' अथवा 'कवि' कहकर प्रेम और मानपूर्वक सम्बोधन करता था । उनके संस्मरण लिखकर उनका रहस्य मुमुक्षु श्रो के समक्ष रखना मुझे अच्छा लगता है। इस समय तो मेरा प्रयास केवल मित्र के सतोष के लिए है । उनके सस्मरणों पर न्याय देने के लिए मुझे जैनमार्गों का अच्छा परिचय होना चाहिए, मै स्वीकार करता हू कि वह मुझे नही है । इसलिए मै अपना दृष्टि- बिन्दु प्रत्यत सकुचित रखूंगा । उनके जिन सस्मरणो की मेरे ऊपर छाप पडी है, उनके नोट्स और उनसे जो मुझे शिक्षा मिली है, इस समय उसे ही लिखकर मे सतोष मानूगा । मुझे आशा है कि उनसे जो लाभ मुझे मिला है वह या वैसा ही लाभ उन सस्मरणो के पाठक मुमुक्षुभो को भी मिलेगा । 'मुमुक्ष' शब्द का मैने यहाँ जानबूझकर प्रयोग किया है । सब प्रकार के पाठको के लिए यह पर्याप्त नही । मेरे ऊपर तीन पुरुषो ने गहरी छाप डाली है-- टालस्टाय, रस्किन और रायचंद भाई । टालस्टाय ने अपनी पुस्तको द्वारा और उनके साथ थोडे पत्रव्यवहार से, रस्किन ने अपनी एक ही पुस्तक 'अन्टु दिस लास्ट' से जिसका गुजराती अनुवाद मैने 'सर्वोदय' रक्खा है, और रायचन्द भाई ने अपने साथ गाठ परिचय से । जब मुझे हिन्दू धर्म मे शका पैदा हुई उस समय उसके निवारण करने में मदद करने वाले रायचन्द भाई थे । सन् १८९३ में दक्षिण अफ्रीका में मै कुछ क्रिश्चियन सज्जनो के विशेष सम्पर्क मे श्राया । उनका जीवन स्वच्छ था । वे चुस्त धर्मात्मा थे । अन्य धर्मियो को क्रिश्चियन होने के लिए समझाना उनका मुख्य व्यवसाय था । यद्यपि मेरा श्रीर उनका सम्बन्ध व्यावहारिक कार्य को लेकर ही हुआ था तो भी उन्होने मेरी आत्मा के कल्याण के लिए चिन्ता करना शुरू कर दिया। उस समय मै अपना एक ही कर्त्तव्य समझ सका कि जब तक मैं हिन्दू धर्म के रहस्य को पूरी तौर से न जान लू और उससे मेरी आत्मा को भसतोष न हो जाए, तब तक मुझे अपना कुलधर्म कभी न छोडना चाहिए । इसलिए मैने हिन्दू धर्म और अन्य धर्मों की पुस्तकें पढ़ना शुरू कर दी। क्रिश्चियन और मुसलमानी पुस्तके पढी । विलायत के अग्रेज मित्रो के साथ पत्रव्यवहार किया। उनके समक्ष अपनी शंकायें रखी तथा हिन्दुस्तान मे जिनके [ ३३१
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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