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________________ लायो । किसी पर अत्याचार करना पाप है । किन्तु किसी का अत्याचार सहना उममे भी बडा पाप है । इम महापाप को किसी भी दशा में स्वीकार न कगे। शुद्धि आत्मा के प्रानन्द के लिए भीतर और बाहर सर्वत्र स्वच्छता आवश्यक है। उमी दया मे हृदय कल-कल निनाद करता हुआ किमी झरने के समान फूट पड़ता है। व्यक्ति, समाज और राष्ट्र तीनो ही के लिए आन्तरिक और बाह्य स्वच्छता की आवश्यकता रहती है। स्वच्छता आनन्द की सृष्टि के अतिरिक्त नाना प्रकार के कला-कौगनी को जन्म देती है । इममे व्यक्ति समाज और राष्ट्र के प्राण मे नये-नये रम उत्पन्न होकर उनका स्वास्थ्य-गक्ति और सम्पन्नता वढ जाते है । जिम युग मे हमारे हमाज मे स्वच्छता को समुचित स्थान प्राप्त था, उस युग में कला-कौशल की दृष्टि से हम अत्यधिक सम्पन्न थे। हमारे प्राचीन देवालयो, मठो और विहारी से इस वान का अच्छा-खामा परिचय हम प्राप्त कर सकते है। आन्तरिक और वाह्य स्वच्छता के मम्वन्ध मे सही दृष्टिकोण के अभाव में हमारे कला-कोगली ने अपनी नित्य नूतनता और अमरना खो दी। वे प्राण और मज्ञा-शून्य होकर सहि मात्र रह गए । आज जब हम पुन उन्नति की दिशा मे अग्रमर है, तव स्वच्छता के सम्बन्ध मे हमें उमी दृष्टिकोण को अपनाना होगा, जो आनन्द और मौन्दर्य का मुप्टा है । इन्द्रिय-निग्रह आज के भौतिकवादी युग की अशान्ति को यदि हम समाप्त करना चाहते है, यदि हमे निरन्तर भय और प्राशका का शिकार बने रहना अभीप्ट नहीं, तो हमे इन्द्रिय-निग्रह के महत्त्व को स्वीकार कर उसे अपनाना होगा। इन्द्रियो के मनमाने ढग पर पूरी छूट से खुल खेलने का इसके अतिरिक्त कोई परिणाम नही हो सकता कि हम शारीरिक और मानसिक रोगों से पीडित हो जाएं । रोग-ग्रस्त व्यक्ति केवल अपने लिए ही नहीं, अपितु अपने परिवार और चारों और के वातावरण के लिए भी पीडा और अशान्ति का कारण बन जाता है। इन्द्रियों की मनमानी से इस प्रकार हम अशान्ति और पीडा के ऐसे बवण्डर में फंस जाते है, जिनका उपचार मामान्य प्रौपधियो से होना सम्भव नही । एक रोग के बढ़ने पर दूसरा मिर उभाड लेता है, दूसरे के बाद तीसरे की वारी पा जाती है। इसी प्रकार यह चक्र चालू रहता है। आज के युग मे हम यही देख भी रहे है । प्राज ससार एक भीपण पीडा और अगान्ति में से गुजर रहा है। एक समस्या का ममाधान नहीं होता कि दूसरी मिर उभार कर खडी हो जाती है। फिर भी इन्द्रिय-निग्रह के महत्व को हम समझ नही पा रहे है । संसार मुखापेक्षी इन उक्त विश्वासो मे हमारी चिरकाल से श्रद्धा और आस्था है । इसी दशा मे भगगन् महावीर स्वामी के शुभ जन्म-दिवम के अवसर पर यदि हम अपनी कथनी और करनी में तालमेल १५६ ]
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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