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________________ अभिप्राय को पूरी तरह न समझते हुए भी इन लोगों ने अपने आचरण और व्यवहार में अनजाने ही अहिंसा को अपना लिया है। "मात्मन. प्रतिकूलानि परेपा न समाचरेत्" अर्थात् जो बातें, क्रियाएं और चेष्टाएं उन्हें प्रतिकूल प्रतीत होती हैं और दूसरो द्वारा किये गये जिस व्यवहार को वे अपने लिए पसन्द नहीं करते और अहितकर और दुःखदायी समझते हैं, उनका आवरण व दूनरों के प्रति नहीं करते । फलस्वरूप अपने चारो ओर के वातावरण के प्रेम में उनके हृदय डूबे हुए हैं। उस प्रेम-सने हृदय ने उन लोगों को दृढता से एक सूत्र मे पिरो दिया है। उनके मंगठन, शक्ति और उन्नति की नींव इस प्रकार अहिंसा पर स्थापित है। भगवान महावीर के जन्मोत्सव के अवसर पर हम यदि इस गुण को अपनानें, तो हमारा समाज भी वैसा ही शक्तिशाली बन सकता है। सत्य किसी काल में हमारा समाज अपनी सच्चाई के लिए विख्यात था। उस काल में मारे समाज को सर्वत्र प्रादर की दृष्टि से देखा जाता था। व्यक्ति, समाज और यहां तक कि दूर-दूर के देश तक हमारा विश्वास करते थे। इसका परिणाम वाणिज्य की वृद्धि, सबसे दन्पुल और मैत्री की भावना और हमारी सत्ता के अधिकाधिक शक्तिशाली हो जाने के रूप में हमें प्राप्त हुआ था। कालान्तर मे इस सत्य का ह्रास हो गया। फलस्वरूप हम अपनी पूर्व-स्थिति कापम नहीं रख सके । वाणिज्य, आपसी सम्बन्ध और सत्ता हर दृष्टि से हमें हानि उठानी पड़ी। विन्तु सत्य को पुन उसी दृढता से अपनाकर हम फिर अपने पुराने आदर और गौरव को प्राप्त करने हैं । आज जो देश और समाज उन्नत है, उनकी ओर दृष्टिपात करने पर यह बात सप्ट हो जाएगी कि वे सत्य को हमारी उपेक्षा अपने जीवन में अधिक दृढ़ता से अपनाये हुए हैं। उनका प्रत्येक सफलता के पीठ पीछे सच्चाई का छपा हाय है। स्वयं अपना प्राचीन गौरव हमे सत्य ने और प्रेरित करने वाला है। वीरता यह बात हम प्रतिदिन अपनी आँखों से देखते हैं कि कमजोर और दुर्वल व्यक्ति जीवन के हर क्षेत्र में पग-पग पर डगमगाता और पराजय का मुंह देखता है। यही बात सभाओं और राष्ट्रो पर भी लागू होती है । इसलिए उन्नति चाहने वाले व्यक्ति, समाज और राष्ट्र निरन्तर अपनी शक्ति को बढ़ाने और अधिकाधिक बलवान बनाये रखने की चेप्या करते हैं, ये चेप्टाएं ही ऐसे व्यक्तियो, समाजो और राष्ट्रो को जीवन की दौड़ में पराजय से दूर रखती हैं। हमारे समाज की विगत पिछड़ी हुई स्थिति का कारण यही है कि अपने मापको बलवन बना रखने की इस होड़ में हम पिछड गये। इस दिशा में हमारा ध्यान नहीं रहा । यदि हम पुनः अपनी प्राचीन स्थिति को प्राप्त करना चाहते हैं, तो हमें भगवान महावीर स्वामी के मुत्य उपदेव को भूलना नहीं चाहिए । यह उपदेश है : वीर और बलवान् बनो। स्वयं जीनी और दूसरे लोगों को जीने दो। अपनी शक्ति मौर वीरता को अन्य लोगों की सहायता और मलाई के काम में [ १५५
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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