SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 159
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रद्धेय ब्रह्मचारी शीतल प्रसादजी की जीवन-झांकी पं० परमेष्ठी दासजी 'न्यायतीर्थ ललितपुर (भानी) ब्रह्मचारीजी की प्रतिमा सर्वतोमुखी थी। इस युग के समाज निर्माण तथा इसके ममी क्षेत्रो मे ब्रह्मचारीजी की प्रमुख साधना और उनकी व्यापक दृष्टि थी। राजमार्ग के चौराहे पर प्रतिष्ठित उनके कीर्तिस्तभ की प्रकाश-रश्मियो में वस्तुत जैन समाज की पिछली पर्व शताब्दी का इतिहास सन्निहित है। ब्रह्मचारीजी जैन समाज के उन दैदीप्यमान रलो में से है जिन्होने जैन धर्म की बड़ी सेवा की। एक लेख २४ मई सन् १८६६ ई. के हिन्दी जैन गजट में प्रकाशित हुआ था। उस लेख का कुछ अंश निम्न प्रकार है: ए जैनी पडितो । यह जैन धर्म आपके ही प्राधीन है। इसकी रक्षा कीजिये, योति फैलाइये । सोतो को जगाइये । और तन, मन, धन से परोपकार और शुद्धाचार लाने की कोशिश कीजिये जिससे आपका यह लोक और परलोक दोनो सुधरे। १८ वर्ष की आयुवाले उदीयमान समाजोद्धारक श्री शीतलप्रसादजी के ये लेखाश धर्मप्रचार और समाज-सेवा के सूत्र थे। स्वनामधन्य सेठ माणिकचदजी के सम्पर्क से आपके मन में समाजसेवा के भाव जागृत हुए। सेठजी सच्चे कार्यकर्ताओ के पारखी थे। अापने वैरागी जिनधर्मभक्त और सच्चे समाजसेवी श्री ब्रह्मचारीजी को अपने यहां बम्बई में रह्न के लिए आग्रह किया। श्री ब्रह्मचारीजी ने उनके पास रहकर उनको धार्मिक कार्यों और समाज-सेवा के लिए उकसाया और अपना सहयोग दिया। स्व० सेठजी ने वम्बई, सागली, आगरा, अहमदागद, शोलापुर, कोल्हापुर, लाहौर आदि स्थानो मे जैन वोडिंग हाउस सभा आदि जैनोपयोगी अनेक सस्थानो को स्थापित किया। इनमें अधिकतर स्व. ब्रह्मचारीजी का हाथ था। स्व० सेठजी प्रत्येक धार्मिक और सामाजिक कार्यो मे पूज्य ब्रह्मचारीजी से सम्मति लेते थे। ब्रह्मचारीजी मे शुद्ध चरित्र पालन करने के भाव और संस्कार बाल्यकाल से ही होगये थे। ब्रह्मचारीजी के चरित्र मे धार्मिकता, जैनधर्म में लगन और चरित्रनिष्ठा को निर्माण करने की आधारशिला का न्यास आपके पितामह द्वारा रक्खा जा चुका था। इसको स्वाध्याय, सत्संग, और आत्म-मनन ने और बढाया। अत मे आपने ३२ वर्ष की आयु मे सन् १९११ ई० में मार्गशीर्ष मास मे श्री ऐलक पनालालजी के समक्ष शोलापुर में ब्रह्मचर्य प्रतिमा धारण की। ब्रह्मचारीजी चरित्र के वडे पक्के थे। शुद्ध आहार, प्रासुक नल और शुद्धता के कट्टर पक्षपाती थे। त्रिकाल सामायिक ग्रन्थो के स्वाध्याय आदि दैनिकचर्या मे कभी कमी नहीं होने पाती। [ १३१
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy