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________________ अध्यात्मरस में उनका अतरग रँगा था। उदारता, सहिष्णुता और विश्वकल्याण उनकी अपनी विशेषता थी। जैनो मे, अजनो मे, स्वदेश मे, विदेश मे जैनत्व की झलक भरने का प्रयत्न करना उनका मधुर संगीत बन गया था। वे पडितो मे पडित थे और बालको मे विद्यार्थी । उदारता और कट्टरता का उनमें विलक्षण समन्वय था। पाटा हाथ का पिसा हो । मर्यादा के अन्दर हो । जल छना हुमा तथा शुद्ध हो। गृहस्थ की जैनधर्म मे नि शकित श्रद्धा हो। वही उनका आहार होना था। उनका आहार-विहार शास्त्रोक्त था। साथ ही उनका दृष्टिकोण उदार था। सुधारको मे वे उग्रतम सुधारक थे। कुरीतियो और लोक मूढतानो के लिए तो वे प्रलयकारी ज्वाला थे। जननी जाति के लिए उनका हृदय तडपता था । वे असाधारण मिशनरी थे। जैन धर्म की छाया मे पाप भी आत्म-कल्याण करें। अजनो के लिए उनका यह पवित्र सन्देश था। इसी रटना से उन्होने अटक से लेकर कटक तक और कन्याकुमारी से लेकर रासकुमारी तक भ्रमण किया था । वौद्ध सस्कृति और साहित्य से निकट सम्पर्क स्थापित करने के लिए वे लका भी गए। जैनो मे ब्रह्मचारीजी एक मात्र ऐसे नेता थे जो जैनदूत बनकर स्व. लाला लाजपतरायजी से मिले और जैन समाज की सेवा के लिए तैयार कर सके । काग्रेस में भी उन्होने जैन त्यागियो के लिए स्थान प्राप्ति का प्रयत्न किया। शहरो मे नही देहातो मे भी उन्होने जागृति का मन्त्र फूका । आप अजैन विद्वानो के सामने एक सच्चे जैन मिशनरी की स्प्रिट से जा पहचते थे । आज पजाब विश्वविद्यालय के वाइसचासलर प्रो० दुल्लाद को प्रभावित कर विश्वविद्यालय मे जैन दर्शन प्रचार की जड जमाई जा रही है तो कल राधास्वामियो के 'साहब' जी को जैनदर्शन की खूबिया समझाने दयालबाग पहुंच रहे है। ब्रह्मचारीजी बडे तीर्थोद्धारक थे। तीर्थों की रक्षा के लिए आपने बडा प्रयत्न किया। द्रव्यसग्रह और तत्त्वार्थसूत्र को वे जैनो की बाईबिल समझते थे। जहाँ जाते योग्य छात्रो को पढाते । इन ग्रन्थो का अधिक से अधिक प्रचार करते। वे बड़े देशभक्त थे । राजनीति में उनके विचार काग्रेस के समर्थक थे। राष्ट्रीय महासभा के प्रत्येक अधिवेशन में वे शामिल होते थे। धर्म-प्रचार और समाज विशेष सुधार के लिए ब्रह्मचारीजी की आज्ञाएँ वकीलो वैरिस्टरो विद्यार्थियो और नवयुवको मे विशेषरूप से केन्द्रित थी। इस क्षेत्र मे सदैव जागृत रह कर प्रचार करते थे। वीर पत्र का भली प्रकार सम्पादन किया। जैनमित्र के तो प्राण ही थे। सनातनधर्म उन्होने शुरू करवाया । ब्रह्मचारीजी की साहित्य-सेवा अवर्णनीय है। आप प्रतिदिन बारह घन्टे लिखते रहते थे। ब्रह्मचारीजी द्वारा विभिन्न विषयो पर रचना किए गये स्वतन्त्र ग्रन्थो, भाषाटीकाप्रो और पुस्तको की संख्या लगभग ७७ है । १३२]
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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