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________________ परमात्मा और सर्वज्ञता ४३ "तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्नाः नैको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम्। धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पन्थाः॥" गम्भीर चिन्तनसे समीक्षक इस निष्कर्षपर पहुंचेगा कि पूर्वोक्त विचार-शैलीने अतिरेकपूर्ण मार्गका अनुसरण किया है। सुव्यवस्थित तर्क सर्वत्र सर्वदा अभिवन्दनीय रहा है, इसीलिए पशुजगत्से इस मानवका पृथक्करण करनेके लिए ज्ञानवानोको कहना पडा कि-Man 1s a. rational being-मनुष्य तर्कणाशील प्राणी है। यह विशिष्ट विचारकता ही पशु और मनुष्यके बीचको विभेदक रेखा है। जिस नैसगिक विशेषतासे मानव-मूर्ति विभूषित है उस तर्ककी कभी-कभी असत् प्रवृत्तिको देख तर्कमात्रको विष खिला मृत्युके मुखमे पहुंचानेसे हम मानवजीवनकी विशिष्टतासे वचित हो जाएंगे। जैसे कोई विचित्र आदमी यह कहे कि मै श्वास तो लेता हूँ किन्तु श्वास लेनेके उपकरण मेरे पास नहीं है। इसी प्रकार सारा जीवन तर्कपर प्रतिष्ठित रहते हुए मानवके मुखसे तर्क-मात्रके तिरस्कारकी वात सत्यकी मर्यादाके वाहर है तथा विवेकी व्यक्तियोके लिए पर्याप्त विनोदप्रद है। इसलिए हमे इस निष्कर्षपर पहुँचना होगा कि जहा कुतर्क गन्दे जलके सदृश मलिनता तथा अशुद्धताको बढाता है, वहा समीचीन तर्क जीवनकी महान् विभूति है। और उसका रस पिए बिना मानवका क्षण-भर व्यतीत होना भी कठिन है। असत्यके फेरमे फंसे हुए सत्यको विश्लेषण करनेका तथा उसकी उपलब्धि करानेका श्रेय समीचीन तर्कको ही तो ह , अत समीचीन तर्कके द्वारा हमे परमात्मा और उसके स्वरूपके विषयमे वह प्रकाश मिलेगा जिससे अन्वेषककी आत्मामें नवीन विचारोका जागरण होगा। समीचीन तर्कके अग्नि-परीक्षणमे विश्वनियन्ता परमात्माकी अवस्थिति नहीं रहती। किन्तु, उसी परीक्षणसे परमात्माका ज्ञान, आनन्द,
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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