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________________ ४४ जैनशासन शान्त, वीतराग स्वरूप अधिक विमल वन विश्व तथा वैज्ञानिक विचारकोको अपनी ओर विवेकपूर्वक आकर्षित करता है। स्वामी समन्तभद्र परमात्माकी मीमासा करते हुए लिखते है-“विश्वके प्राणियोमे रागादि दोष तथा जानके विकास और ह्रासमे तरतमताका सद्भाव पाया जाता है-कोई आत्मा राग-द्वेष-मोह-अज्ञानसे अत्यधिक मलीन होता है तो किसीमे उन विकारोकी मात्रा हीयमान तथा अल्पतर होती जाती है। इससे इस तर्कका सहज उदय होता है कि कोई ऐसा भी आत्मा हो सकता है जो राग, द्वेष, मोह आदि विकारोसे पूर्णतया विमुक्त हो, वीतराग वन सर्वनताकी ज्योतिसे अलकृत हो। खानिसे निकाला गया सुवर्ण किट्टकालिमादिसे इतना मलिन दिखता है, कि परिशुद्ध सुवर्णका दर्शन करनेवालेका अन्त करण उस मलिन अपरिष्कृत सुवर्णमे सु-वर्णवाले सोनेके अस्तित्वको स्वीकार नहीं करना चाहता। यह तो उस अग्नि आदिका कार्य है, जो दोपोको नष्ट कर नयनाभिराम बहुमूल्य सुवर्णका दर्शन या उपलब्धि कराती है। इसी प्रकार तपश्चर्या, विवकपूर्वक अहिंसाकी साधना, आत्म-विश्वास तथा स्वरूपवोधसे समन्वित आत्मा अपनी अनादिकालीन राग-द्वेष, मोह, अनान आदि विकृतिका विध्वस कर अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त शक्तिसम्पन्न परिशुद्ध आत्माकी उपलब्धि करता है। ऐसे चैतन्य, आनन्द आदि अगणित विशेषताओसे अलकृत श्रेष्ठ आत्माको परमात्मा कहते है। समीचीन तर्कवालोकी दृष्टिमे यही ईश्वर है, यही भगवान् है। यही परम-पिता, महादेव, विष्णु, विधाता, शिव आदि विभिन्न पुण्य नामोसे सकीर्तित किया जाता है। इसी दिव्य ज्योतिके आदर्श प्रकाशमे अनन्त दुखी आत्माएँ अपनी आत्मशक्तियोको केन्द्रित करती हुई अपनी आत्मामे अन्तहित परमात्मत्वको प्रकट करनेका समर्थ और सफल प्रयास कर सच्ची साधना द्वारा एक समय कृतकृत्य, परिशुद्ध, परिपूर्ण बन जाती है । आचार्य सिद्धसेन दिवाकरकी यह धारणा है कि इस परम-पवित्र, परिपूर्ण, परिशुद्ध परमात्माको ही विविध साम्प्रदायिक दृष्टिवाले अपनी-अपनी मान्यतानुसार पूजा
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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