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________________ जैनशासन परमात्मा और सर्वज्ञता 1 परमात्माके कर्तृत्वको विविध दोष - मालिकासे ग्रसित देख कोई-कोई विचारक परमात्माके अस्तित्वपर ही कुठाराघात करनेमे अपने मनोदेवता को आनन्दित मानते है । वे तो परमात्मा, अथवा धर्म आदि जीवनोपयोगी तत्त्वोको मानव-बुद्धिके परेकी वस्तु समझते है । एक विद्वान् कहता हैं, जिस तर्कके सहारे तत्त्वव्यवस्था की जाती है वह सदा सन्मार्गका ही प्रदर्शन करता हो, यह नही है। कौन नही जानता कि युक्तिका आश्रय ले अतत्त्वको तत्त्व अथवा अपरमार्थको परमार्थ- सत्य सिद्ध करनेवाले व्यक्तियोका इस युगमे बोलबाला दिखायी देता है । जैसे द्रव पदार्थ अपने आधारगत वस्तुओके आकारको धारण करता है, उसी प्रकार तर्क भी व्यक्तिकी वासना, स्वार्थ, शिक्षा-दीक्षा आदिसे प्रभावित हो कभी तो ऋजु और कभी वक्र मार्गकी ओर प्रवृत्ति करनेसे मुख नही मोडता । इसलिए तर्क सदा ही जीवन - नौकाको व्यामोहकी चट्टानोसे बचाने के लिए दीप-स्तम्भका कार्य नियमसे नही करता । कदाचित् धर्म-ग्रथोके आधारपर ईश्वर-जैसे गम्भीर तथा कठिन तत्त्वका निश्चय किया जाए तो बडी विचित्र स्थिति उत्पन्न हुए बिना न रहेगी। कारण, उन धर्म-प्रथोमे मत भिन्नता पर्याप्त मात्रामे पद-पद पर दिखायी देती है । यदि मत - भिन्नता न होती तो आज जगत्मे धार्मिक स्वर्गका साम्राज्य स्थापित न हो जाता ? जो धर्म-ग्रन्थ अहिंसाकी गुणगाथा गाने में अपनेको कृत-कृत्य मानता है वही कभी -कभी जीव-वधको आत्मकल्याणका अथवा आध्यात्मिक विकासका विशिष्ट निमित्त बतानेमे. तनिक भी सकोच नही करता । ऐसी स्थितिमे घबडाया हुआ मुमुक्षु कह बैठता है भाई, धर्म तो किसी अँधेरी गुफाके भीतर छुपा है, प्रभावशाली अथवा बुद्धि आचरण आदिसे बलसम्पन्न व्यक्तिने अपनी शक्तिके बलपर जो मार्ग सुझाया, भोले जीव उसे ही जीवन-पथ-प्रदर्शक दिव्य ज्योति मान बैठते है । कविने ठीक कहा है --- ४२
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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