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________________ जैनशासन कर्त्तृत्वका परमात्मामे आरोप करनेसे वह वन्दनीय विभूति रागद्वेप, मोह आदि विकारयुक्त वन साधारण मानवके धरातलपर आ गिरेगी और ऐसी स्थिति वह दिव्यानद के प्रकाशसे वञ्चित हो पवित्र आत्माओ - का आदर्श भी न रहेगी । ૪ कर्तृ त्वके फेरमे फँसे हुए उस परमात्माके विरुद्ध विवेकके न्यायालयमें वैरिस्टर चम्पतरायजीका यह आरोप विशेष आकर्षक तथा प्रभावक मालूम होता है - " जिसने मलिनताकी मूर्ति अत्यन्त वीभत्स मल-मूत्रकी खानि स्वरूप शरीरमें इस मानवको उत्पन्न करके उस शरीर के ही भीतर इसे कैद कर रखा है, वह परम पिता परम दयालु, बुद्धिमान् परमात्मा जैसी पवित्र वस्तु नही हो सकती। ऐसी कृति तो निर्दयता एव प्रतिशोधके दुर्भावको स्पष्टतया प्रमाणित करती है ।" पं० जवाहरलाल नेहरू अपने आत्मचरित्र 'मेरी कहानी' मे अपने हृदयके मार्मिक उद्गारोको व्यक्त करते हुए लिखते है - " परमात्मा की कृपालुतामे लोगोकी जो श्रद्धा है, उस पर कभी-कभी आश्चर्य होता है। कि किस प्रकार यह श्रद्धा चोट पर चोट खाकर जीवित है और किस तरह घोर विपत्ति और कृपालुताका उल्टा सुवूत भी उस श्रद्धाकी दृढताकी परीक्षाएँ मान ली जाती है ।" जे० रार्ड हापकिन्सकी ये पक्तिया अन्त करणमे गूँजती है his glory and worship; a fourth, that he does it in sport and so on. Why should it please the creator to create a world, where sorrow and pain are the inevitable lot of the majority of his creatures? Why should he not make happier beings to keep him company ?” – Key of Knowledge P. 135.
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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