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________________ विश्वनिर्माता 2 " सचमुच तू न्यायी है स्वामी, यदि मैं करूँ विवाद, किन्तु नाथ मेरी भी है, यह न्याय - युक्त फरियाद । फलते और फूलते है क्यो, पापी कर-कर पाप, मुझे निराशा देते है क्यो सभी प्रयत्न कलाप | प्रिय बन्धु, साथ मेरे यदि तू करता रिपुका व्यवहार, तो क्या इससे अधिक पराजय, औ बाधाओ का करता वार । अरे उठाई गीर वहां वे मद्य और विषयोके दास, भोग रहे वे पड़े मौजमें है जीवनके विभव विलास । और यहां मै तेरी खातिर काट रहा हूँ जीवन नाथ, हा, तेरे पथपर ही स्वामी घोर निराशाओके साथ । " विश्वका ऐसा अस्त-व्यस्त चित्र चिन्तकको चकित बना कर्तृत्वक ओरसे पराङ्मुख कर देता है । विहारके भूकम्पपीडित प्रदेशमे पर्यटन द्वारा दुखी व्यक्तियोका प्रत्यक्ष परिचय प्राप्तकर पडित नेहरूजी लिखते है - " हमे इसपर भी ताज्जुब होता है, कि ईश्वरने हमारे साथ ऐसी निर्दयतापूर्ण दिल्लगी क्यो की कि पहिले तो हमको त्रुटियोसे पूर्ण बनाया, हमारे चारो ओर जाल और गड्ढे विछा दिए, हमारे लिए कठोर और दुखपूर्ण ससारकी रचना कर दी, चीता भी बनाया और भेड भी । और हमको सजा भी देता है ।" ? Thou art indeed just, Lord if I contend With thee, but, sir, so what I plead is Just, Why do sinner's ways prosper? and why must Disappointment all I endeavour end? ३५ Wert thou my enemy, O, thou my friend, How woudst thou worse, I wonder, than thou dost Defeat, thwart me? Oh, the sots and thrills of lust Do in spare hours more thrive than I that spend Sir, life upon thy cause - नेहरूजीकी पुस्तक 'मेरी कहानी से "
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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