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________________ जैनशासन है , कारण शरीर अचेतन है और वह आत्माके भोगका आश्रयरूपसे प्रसिद्ध है, आत्मा तो भोक्ता है। इन्द्रियोमे भी 'जीव' व्यवहार नहीं होता, कारण उनकी उपभोगके साधन रूपसे प्रसिद्धि है-जैसे हम कहते है 'मैं' 'आखो' 'से' 'देखता' 'हूँ यहा 'देखना' रूप क्रियाका साधन नेत्र इन्द्रिय है, देखनेवाला आत्मा पृथक् पदार्थ है। रूप-रस-गध-शब्द आदि इन्द्रियोके विषयोमे 'जीव' शब्दका व्यवहार करना उचित नहीं है, कारण वे भोग्यरूपसे विख्यात है-जैसे 'मै' 'पानी' 'पीता' हूँ। यहा पीना क्रियाके विषयमे पानी रूप भोग्य पदार्थका ग्रहण किया जाता है तथा 'मैं' शब्द कर्ता आत्माको बताता है। अतएव भोक्ता आत्मा ही 'जीव' पद वाच्य है। चैतन्यको शरीर आदिका कार्य माननेपर आत्मामे भोक्तापनेकी बुद्धिका औचित्य सिद्ध नहीं होता।" अकलंक स्वामी भाषा-शास्त्रियोके इस सन्देहका भी निराकरण करते है कि 'जीव' शब्दके सद्भावमे भी जीव रूप अर्थ. न माने तो क्या बाधा है ? कारण प्रत्येक शब्दका अपने वाच्यार्थके साथ निश्चित सम्बन्ध हो, ऐसा विदित नहीं होता। इस भूमके निराकरणमे आचार्य कहते है'जीव' शब्दसे उत्पन्न होनेवाला जीव अर्थका बोध अबाधित है। जैसे, धूमदर्शनसे अग्निका परिज्ञान किया जाता है और अबाधित होनेसे उस ज्ञान पर विश्वास किया जाता है उसी प्रकार प्रकृत प्रसगमे समझना चाहिए। मरीचिका मे उत्पन्न होनेवाला जलका ज्ञान बाधित होनेसे दोषयुक्त है। जो ज्ञान अबाधित है उसे निर्दोष मानना होगा। इस नियमानुसार 'जीव' शब्द वास्तविक 'जीव' अर्थको द्योतित करता है। उस जीवकी हर्ष-विषाद आदि अवस्थाएँ है। यह प्रत्येक व्यक्तिके अनुभव-गोचर है और प्रत्येक शरीरमे पृथक्-पृथक् अनुभवमे आता है। इस अनुभवका परित्याग भी नही किया जा सकता। यही अनुभव
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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